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Thursday, June 1, 2017

सपने और क्रान्ति

ये विचार किस क्रान्ति की देन है कि
जिंदगी का सफर 
पहिए के ही भरोसे है !
कभी एकांत में बेमतलब 
बजता है शंख और 
 बिना ढोल के किसने कह दिया
नहीं गाए जा सकते पद,
कविता में कभी-कभी
शब्द घुसने को राजी नहीं होते
पर फिर भी बिना अर्थ के
तुम ला सकते हो कोई शब्द
मैंने कल सपने में पढ़ी
सपने की कविता
जहाँ कुंए के की पाट पर
उगा था कोई खूबसूरत फूल
और आदमी के गर्दन पर
रस्सी की सी थी गाँठ
जिसको वह अपने हाथों में लिए
इधर-उधर आ-जा रहा था पर
इतनी ही कविता सपने की
कविता नहीं थी
धीरे धीरे
पृष्ठ दर पृष्ठ
वह अभी बजेगी
जिसे सुनना और शेष रह गया है |
(अप्रमेय )

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