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Wednesday, October 25, 2017

सभ्यता की छाती पर

बाहर सुबह हो गई
और इधर रात का अंधेरा 
जला अंदर धीरे-धीरे
दिए के मानिंद,
जोरन ने दूध को रात में जाने कब
बना दिया दही
जाने कब अंतिम सांस ली
बूढ़े ने करते-करते इंतजार,
मंदिरों में बजा घण्टा
स्कूल के घंटो के साथ,
धीरे-धीरे चीटियों की तरह
आदमी ने बढ़ाए अपने कदम
वहीं लौट आने के लिए,
आदमी ने बनाए घर
रात बिताने और सुबह जागने के लिए
सदियों से सुबह होती गई
वैसे ही रात ढल जाने के बाद,
नई दुनिया ने समझ लिया इसका राज
सभ्यता की छाती पर फिर
धर दिए उसने अपने पांव !
(अप्रमेय)

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