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Sunday, August 18, 2013

स्मृति


                                                               
मैं वही हो गया था
जो मैंने देखा था
मैं उस वक्त तुम्हें
खड़ा केवल निहार रहा था
ऊपर से नीचे तक
मेरे और तुम्हारे बीच
कुछ बन पड़ा था
पर वह जाता रहा धीरे-धीरे
जैसे चली जाती है जिंदगी ,
तुम और गहरे होते गए
जैसे गहरी होती जाती है मृत्यु ,
तुम ही विजयी हुए
तुमनें बना लिया था मुझे अपने जैसा
शांत पहाड़
शान्ति से तब ही
मैं निहार पाया था आकाश
मैं हवा था
हाँ मैं था तुम्हारे पास
पेड़ की फुनगी पर
और वहां से उतर कर
जड़ो की अन्धकार में
देख रहा था पाताल ,
फिर जाने कहाँ से
मुझे लिखनी पड़ी
वह स्मृति
(अप्रमेय)

परमात्मा अनंत है





परमात्मा अनंत है | उसका विचार ,व्याख्या उससे सम्बंधित उसका कुछ भी सब अनंत है |हम भी उसी के विस्तार हैं | वस्तु को देखना  सिर्फ देखने की तरह यह परम योग है.... यह घटता है किन्तु धीरे-धीरे| हम निरपेक्षता की गहराई में उतरते हैं किन्तु धीरे-धीरे | उतरना एक गति है- जिसे हम "विस्तार की गति " या फिर 'प्रवाह की गति' कह सकते हैं | 
अगर इस योग में हम कहीं रुके या फिर किसी विचार ,आभास अथवा प्रवाह की व्याख्या करने बठे, तो वह व्याख्या तो होगी पर उस अनंत की व्याख्या न हो सकेगी, हम विस्तार को रोक नहीं सकते भाव के दर्पण में उसकी  तस्वीर को लाना कहाँ हो पाता है | किन्तु छोटे-छोटे ऐसे भाव- प्रभाव भी हमे जीवन जीने के उस धारा में उत्प्रेरित सदा से करते चले आ रहे हैं | अनंत का आभास छडिक हो तो भी क्या. है तो उसी का अंश- यही विस्मय द्वार है उस पूर्ण में चले जाने का  |
(अप्रमेय)

तुम्हारा टिकट


इसे कविता ही समझो 
हलाकि यह मेरी 
एक स्पष्ट पर 
विनम्र पाती है ,
उनके लिए 
जो उस अनंत विस्तार 
की यात्रा में सहयात्री हैं ,
इस कविता को 
तुम बना सकते हो 
या इसे मिटा कर
नए शब्दों को
जोड़ सकते हो
नए अर्थ लिए
अपने सदृश्य
अपनी यात्रा के
अपने सुख लिए,
तुम्हारा होना ही
तुम्हारा टिकट है
इस यात्रा के लिए
इस गाड़ी में न सही
उस गाड़ी में
तुम्हे यात्रा करनी ही होगी
(अप्रमेय )

फुटपाथ के ऊपर घर



थोडा सड़क से ऊचा
सरकार ने बना रखा है फुटपाथ
वहां आप खड़े हो सकतें है
और नजरे दौड़ा कर
देख सकते है
आदमी ने कैसे बना रखा है
फुटपाथ के उपर घर ,
अक्सर वहां आप को
बिना बिस्तरे की खटिया
पड़ी मिल सकती है
वहां आप बैठ जाये
उस घर के अन्दर
चीजो को देख
आप महसूस कर सकते हैं
महज कोठिया ही घर नहीं
दरअसल, सलीके से
रखा गया सामन
कहीं किनारे धुल कर
रखी गयी सब्जियां
बच्चो से छुपा कर थोड़ा
उनके पहुँच से ऊचा
रखा गया नमकीन-बिस्कुट
ही घर है,
आप देख सकतें है
उनके प्लास्टिक या चादर की सी
दीवार पर
लुढ़के भगवान्
मंदिर दूर हो
और अगर आप चाहे
तो लटके भगवान् को वही प्रणाम कर
ले सकते है आशीर्वाद
और मेरा दावा है
यदि आप दिखने में थोडा
सभ्य लग रहे हो
तथा इतनी देर तक
खड़े रह चुके हो
तो निशित ही वहां
आप को मिल सकती है
आप के घर जैसी चाय
(अप्रमेय  )

ये शाम


ये शाम उदास कभी ऐसी न थी 
ये याद तुम्हारी कभी ऐसी न थी 
अप्रमेय

मेरी डायरी में



तुम्हारी गोंजी हुई लकीर 

मेरी डायरी में 
अचानक दीख पड़ती है 
रात मे अचानक जग जाने जैसे,
रात कभी 
दिन कभी 
तुम जब भी दिख पड़ते हो 
मेरे पन्नो में 
छेड़ जाते को कोई प्यारी धुन 
सन्नाटे में अचानक कभी-कभी 
कौधती है चमक
तुम्हारी गोंजी हुई लकीर सी।
तुमने गोंजा नहीं था
मेरी डायरी में
गुंज गए थे
अपनी पूरी मस्ती लिए
पूरी कहानी लिए
आओ मै तुम्हारे लिए
कोई शब्द तराशूँ
अप्रमेय

गीत चुराता हूँ



हाँ मै गीत चुराता हूँ 
झरनों की कल-कल 
चिड़ियों की चहचहाहट 
हवाओं के झोके 
सबके गीत चुराता हूँ 
हाँ मै गीत गुनगुनाता हूँ,
सर्द में सहमा हुआ 
गर्म में कुछ उखड़ा हुआ 
बसंत में खिलखिला कर 
अक्सर मै गुनगुनाता हूँ 
हाँ मै ऋतुओं के गीत चुराता हूँ,
सुबह के गुलाबीपन का 
दोपहर में कुछ चमकीला हुआ 
लालिमा शाम की 
अपने गीत में बहाता हूँ 
हाँ मै गीत चुराता हूँ,
अनगढ़ जंगलो को देख कर 
पहाड़ों की उचाईयों पर 
नर्म बर्फ की गद्दियों पर सोता हूँ 
नर्म-नर्म गुनगुनाता हूँ 
हाँ मै अनगढ़ गीत चुराता हूँ,
भूखों को तड़पता देख कर 
रोटी की कीमत समझ कर 
कभी-कभी मै 
भूख को गुनगुनाता हूँ 
हाँ मै तड़पते हुए लोंगो के 
गीत चुराता हूँ......
(अप्रमेय )