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Sunday, April 19, 2020

मेरे लौटने के बाद

मेरे लौटने के बाद
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तुम्हारे पास से 
लौटते हुए मुट्ठी बांधे
मैं ले आता हूँ शब्द
कागजों में उन्हें पुड़ियाते
और भागते हुए जंगलों की तरफ
इधर मैंने धीरे धीरे जाना 
ध्वनि का गर्भ

तुम्हारे पास से लौटते हुए मैंने सीखा 
शहर की आबादी से कैसे
निकाल ले आने हैं
कुछ अनाथ शब्द

मैं इधर अब उन्हीं अनाथ शब्दों की
तलाश में रहता हूँ
और मरघट के दरवाजे पर
धीरे-धीरे सरकते उन शब्दों को
भर-भर के ले जाता हूँ
जंगलों की तरफ,

पाठकों से बात दूं
कि जंगलों का व्याकरण अलग है
और कविता तो बिलकुल ही है अलग

मैं शब्दों से कविता का 
घोंसला बुनता हूँ जिसमें 
जन्म पाती है भाव की एक चिड़िया 
जो मेरे शहर लौटने के बाद
मुक्त आकाश में उड़ जाती है
उसका गुण-धर्म बन जाती है।
(अप्रमेय)

Friday, April 17, 2020

माँ

छोटा बच्चा पुकारता है
माँ....
उसके पीछे से आती है आवाज
आती हूँ ,

वह फिर पुकारता है
माँ....
इसबार उसके आवाज को 
अपनी आवाज की गोद में
बीच में ही थाम लेती है 
माँ....

जब जब बच्चा पुकारता है 
माँ....
तब-तब माँ के अतिरिक्त
पूरा अस्तित्व उतने काल के लिए
ठहर जाता है।
(अप्रमेय)

Tuesday, April 7, 2020

काल की किसानी

जो जो खड़े हैं
अपनी गंध के साथ
वे यह जानते हैं नहीं तो 
देर-सबेर समझ ही जाएंगे कि
पृथ्वी उनकी माँ है और जल पिता,

ऐसा भी होता रहा है कि 
अपने बीच के किसी क्यारी से 
कोई फूल मुरझा गया
उसके मुरझाने का दुख तो है ही पर 
एक बात जो समझ लेने जैसी है
वह यह कि कुछ भी यहां
वैसा नहीं होता जैसा
हमको समझाया जाता रहा है,

इसलिए हमनें एक मात्र
अग्नि को साक्षी मान कर  
सम्बोधित किया उन्हें गुरु,
यह वही है जिसने
शब्द को हमारी जिह्वा पर 
स्पर्श से हमारी व्याकुलता पर
और रूप से हमारे ध्यान को 
निर्देशित किया,

वह जानता है वायु के पास 
पंख नहीं हैं, न ही कोई चोंच है
वह बस हाहाकार करते आकाश से
निकल पड़ी है जिसे 
अभी पुनः रोपा जाना बाकी है
काल की किसानी की कहानी
हमेशा से अलग-थलग पड़ी रही
जिसे कभी भी किसी भी
इतिहास के पन्ने में 
दर्ज नहीं किया जा सका है।
(अप्रमेय)

Saturday, April 4, 2020

बूढ़ा बाप और पियक्कड़ बेटा

बूढ़ा बाप अपने हिस्से की 
बची खुशी को स्थगित कर देता है
अपने पियक्कड़ बेटे की खातिर,

बूढ़े बाप ने बचपन में
एक कहावत सुनी थी 
बाढ़े पूत पिता के कर्मे सो
अपने बुजुर्गियत के सारे बचे काम को
अपनी बूढ़ी पत्नी के हवाले कर
कुछ अपनी दवाइयों को न खरीद कर
चोरी से मंदिर में कुछ पैसे चढ़ा आया,

बूढ़ा बाप हर समय बैंक नहीं जा सकता
सो कुछ पैसे अपनी गांधी बनियान में 
घर के लोगों से छुपाए हुए है
मैं जानता हूँ अपने अनुभव से यह बात
कि वह इस पैसे को किसको देगा,

कल रात उसका बेटा दारू के नशे में
नाली से निकाला गया था
आज सुबह उसने अपने गेट के सामने 
जाम नाली को पानी की तेज धार से साफ किया,

बूढा होना और वह भी 
पियक्कड़ बेटे का बूढ़ा बाप होने में फर्क है
यह परकथा नहीं है
एक अनुभव है जिसकी कहानी
मेरे कविता के मंदिर में सुबह-शाम
उनसे मिलने के बाद
घंटे की तरह बज रही है।
(अप्रमेय)

प्रेम और आम का पत्ता

उसके कंधों का सहारा लेते      
एक गूंज की शक्ल सा
मैंने अपने आप को 
उसके साथ जाते देखा,
पर स्मृति में वहीं अब भी 
अटका हुआ हूँ जहां
चुप्पी ने एक घोंसला बुन दिया था,
इच्छा थी एक गीत गाने की 
गा न सका पर
उसकी धुन आकुंठ पंख फैलाए 
शब्दों की तलाश करते
आकाश में सूर्य की परिक्रमा कर रही है,
मैं नितांत परेशान सा ढूंढ रहा हूँ सहारा
न मंदिर, न बाबा, न चेला , कोई भी नहीं
जो सुने मेरी बात,
बाहर से घर आते हुए
घर के चबूतरे के पास अचानक
मिल गया गिरा पड़ा एक 
गदराया आम का पत्ता
पता नहीं उसने सुनी या नहीं
पर मैंने कही अपनी बात
उसके बाद मैं शांत हूँ
और अब जब मैं उसे अपनी किताब
के पन्नों के बीच रख रहा हूँ
तो सोच रहा हूँ कि 
बिना फल के मौसम में 
ये पत्ते क्या करते हैं
अपनी हरियाली को इतनी यातनाओं के बाद भी 
ये कैसे बचाए रखते हैं।
(अप्रमेय)

कोरोना 2

कोरोना-2
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पहले चुप होता है आकाश
फिर पंछी उड़ना भूल जाते हैं
हिलती नहीं डालियां
जड़ें तोड़ देती हैं पाताल पहुंचने की 
अनवरत प्रतिज्ञा ,

मिट्टी अपना धर्म त्याग कर
गर्भ में तपिश देते बीजों को 
रखे रखे पथरा जाती है,

कानों में बजता है 
आठवें सुर पर अवतरित घण्टा,

अकाल में पड़ा आदमी 
इस अकाल के रहस्य को जानता है
मरने के पहले 
घड़ी दो घड़ी ही सही
दूसरे की कीमत पर
वह जी भर के 
जी लेना चाहता है।
(अप्रमेय)

चार साल की बच्ची और कोरोना

चार साल की छोटी बच्ची दुःखी होकर
अपनी माँ से सुन कर निश्चिन्त 
हो लेना चाहती है कि
गर्मी आएगी और 
कोरोना वायरस चला जाएगा,

मां कुछ भी कह देना नहीं चाहती
क्योंकि वह जानती है
अनादि दुःख और महामारी के दुख का अंतर
वह चुप है क्योंकि
सत्य कहा नहीं जा सकता
ये अलग बात है कि हमने
सुन रखा है कि शब्द साक्षी हैं
'अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी'

पर साक्षी होना देह के
दुख का निवारण नहीं
कुछ भीतर के
दुख से छुटकारा हो सकता है,

बच्ची कितने दुख में है
यह माँ को तभी पता चला 
जब शब्द अपनी अक्षमता के आवेग में
बह निकले उसकी आंखों से,

मैं सोचता हूँ कि क्या भाषा भी 
इसी अक्षमता की पुत्री है और
वृक्ष और फिर जंगल
नदियां सब कुछ जो काल के प्रवाह में
बह रहे हैं वह किस अक्षमता 
के भाई -बन्धु हैं!

मेरा समय आज अपनी अक्षमता पर
मुझसे सवाल कर रहा है कि कहो
हम ईश्वर के अक्षम पुत्र हैं या
वह हमारी अक्षम पिता ?
(अप्रमेय)

शरीर के बाहर आदमी

शरीर के बाहर आदमी
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शरीर के बाहर मनुष्य
और शरीर के अंदर मन
दोनों ही पूछते रहे सवाल 
मैं खुद भूल गया 
मुझे जाना किधर था 
या कहूँ भटकता रहा
दर-बदर,

नींद और बेहोशी दोनों ही 
ठीक समय पर मिलती रही 
दवाई की तरह,

आंखें भरती रहीं पर 
व्यर्थ हुआ उनका टपकना
कहीं भी नहीं मिली जमीं
न ही जन्म पा सका कोई
रुद्राक्ष,

सफर में आज की सुबह हुई
और दिख पड़ा आम का पेड़
राहगीरों ने कहा टिकोरा 
पर मुझे एक एक पत्ता अर्घा
और सभी टिकोरे दिख पड़ा
शिवलिंग।
(अप्रमेय)

जिंदगी को देखते हुए

आंख ही नहीं भरती
गला भी भर आता है
जहाँ अटा पड़ा हुआ है 
शब्दों का पहाड़,
वहीं अपनी जगह से 
गीली होकर खिसकती है
थोड़ी जमीं,
पहाड़ भी खिसक जाता है,

एक रास्ता खुल आता है छिद्र सा
जिसके बीच सीढ़ी बनाते 
चढ़ता है कोई 
गरुड़ सा पंख लिए,

हे प्राण! हे प्राण ! 
कोई पुकारता है उसे, 
ऊपर से देखने पर
दिख पड़ता है खेतों सा
जीवन
जिसने अपने हृदय में
संजोए रखा है
संयोगों के पेड़-पौधे,

थोड़ा गहरे और गहरे
देखने पर
तितलयों सा उड़ते 
दिख पड़ते हैं कुछ लोग
औषधि का रस चूसते 
और कुछ अपनी चिता की 
अग्नि के लिए
उन्हीं पेड़ों से लकड़ियां 
काट रहे होते हैं।
(अप्रमेय)