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Saturday, June 28, 2014

वह जब आए...

काश मेरी समझ की नासमझी और बढ़ जाए 
तेरे यकीन पर एतराज के बादल भी छा जाए,
फिर जो कड़केगी बिजली उसको देखेंगे 
फिर जो उतरेगी बारिश उसको समझेंगे,
जो कुछ भी हो, मेरी समझ-नसमझ से न आए 
वह जब आए...आए और.... छा जाए....

(अप्रमेय)

Tuesday, June 24, 2014

व्यवस्था

ये वह जंजीर है
जिसे व्यवस्था ने बनाया है
दरिद्रता और ऐश्वर्य
के सामान से,
तुमने देखा नहीं ?
यह तुम्हारा खाली बक्सा भी बाँधती है
और उनके तिजोरी को भी
रखती है सुरक्षित,
तुम...तुम रह सको
और वह...वह
इसलिए
प्रार्थनाएँ और कानून
सजग हैं,
दोनों ही आँख बंद कर के
स्वीकार करते हैं
जिसमे 'निर्णय' के लटके ताले को
खोलती है 

एक अदृश्य
चमत्कारिक चाबी। 
(अप्रमेय )

Friday, June 20, 2014

वह



वह मुझे
कहीं भी मिल जाता है
अक्सर तिराहों पर
किसी वीरान घर के बरामदे में
खड़ा-झाँकता,
घूमते साइकल के पहियों
में बिना घिसे चमचमाता
या
फड़फड़ाता सिनेमा हॉल के उकचे
किसी बैनर के ऊपर-किनारे
वह मुझे
कही भी मिल जाता है
पसरा---शब्दों की नज़र में
अटका---गीत की लय में
या फिर सिकुड़ता...
जिंदगी के सत्य में
हैंडपंप के पास चबूतरे पर
पड़ा हुआ
संडास के छिद्र की ढलान से  
बच-कर दृष्य बनाते
जिंदगी से दो-चार करते हुए |
( अप्रमेय )
     

Friday, June 13, 2014

इस इंतज़ार को

मैं कोई शब्द 
ऐसा नहीं लिख देना चाहता 
जो इस सन्नाटे को तोड़े ,
नहीं ! प्रेम नहीं इससे 
यह तो सिर्फ इस सन्नाटे को 
और गहराने का इंतज़ार है ,
कभी मैं अगर इसमें 
कोई सुन सका शब्द 
तो उसकी ध्वनि कैसी होगी ?
कभी कोई अगर
देख सका दृष्य 
तो उसका रूप कैसा होगा ?
शब्द से परे नहीं 
उस गूँज के अंदर 
रूप से पार नहीं 
उस दृष्य के भीतर 
होने की प्रक्रिया में 
इंतज़ार के रूपांतरण को 
अपने अंदर बुनना चाहता हूँ 
हाँ मैं इस इंतज़ार को 
और गहरा देना चाहता हूँ। 

(अप्रमेय )