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Friday, February 28, 2020

होली 2

होली में दीप नहीं जलाए जाते
रंगोली भी नहीं बनाई जाती
कोई जब निकलता है होली के दिन
होली खेलने
तब कोई बहन रक्षा सूत्र नहीं बांधती
भाई के कलाई पर,
अभी जो कुछ आप ने सुना
वह कविता नहीं है
सवाल था बहुत पहले
जो बचपन में मैंने
अपने पिता से पूछे थे,

उन्हों ने होली के दिन
मुझे मां के पास भेज दिया था
इन्हीं प्रश्नों के साथ
मेरी माँ ने मुझे
होली की शाम बुकवा लगाने के बाद
कलाई पर रक्षा सूत्र बांधा था,
मंदिर में रोली से रंगोली बनाई
और दीप जला कर
आंखों में काजल लगाते कहा था
किसने कहा कि होली में
यह सब नहीं किया जा सकता।
(अप्रमेय)

Tuesday, February 25, 2020

होली 1

होली आने को है
और
मैं उस जगह कुछ दिनों से
रह रहा हूँ जहां
होली को अब भी अंग्रेज़ी कैलेंडर से नहीं
पलाश के खिलने से जाना जाता है,
मैंने सुना है फूलों से रंग बनाने की बात
आप ने भी जाना होगा
किसी के चेहरे के रंग से
उसके हृदय की बात,
होली आने को है इसलिए
कुछ और नहीं
केवल इतना भर कहूंगा कि
प्रेम जगत की एक अनिवार्य होली है
जिसका समय तय नहीं किया जा सका है
वह जब घटती है
आंखों में जल और चेहरे पर अनगिनत
भावों के रंग लगा जाती है
कोई बच नहीं सकेगा इस होली से
क्योंकि पलाश खिलते रहेंगे
रंग बनते रहेंगे और अगर
जीवन बचा रहा
मेरे जैसे कई दीवाने
होली खेलते रहेंगे।
(अप्रमेय)

Saturday, February 22, 2020

मुक्ति का एक दीप

स्मृतियां तारों सी चमकती हैं
अंतरतम आकाश में
एक चेहरा बीचों-बीच
चांद सा निहारता है मुझको
मैं प्रतीक्षा में हूँ कि
पूर्णिमा के दिन
मंत्रों के बंदनवार से
मुदित पुष्प सा रंग खिलाऊँ
महक उठूं खुद अपने तन में
सब मे एक सुवास जगाऊँ
बहुत हुआ अमावस अब
मुक्ति का एक द्वीप जलाऊं !!!
(अप्रमेय)

Friday, February 14, 2020

मैं मंसूर नहीं

जीवन वृत मेरा
लिखा नहीं जा सकता
इसलिए नहीं कि ये मुमकिन नहीं
इसलिए कि मैं जानता हूँ
लिखने को कुछ उसमें होगा नहीं,
मैंने इत्मीनान से इसपर सोचा
और चुप चाप खुद से
कुछ कहते रहने का
निर्णय लिया !!!
यह निर्णय ब्रह्म वाक्य है
दुनिया के लिए नहीं
मेरे लिए क्यों कि
यह मेरा सत्य है
जिसमें पाप, ईर्ष्या, मक्कारी
और वह सब कुछ जिसे
आप घृणित कहते हैं
कम-जरा नहीं कूट-कूट कर
भरा पड़ा है
मैं जानता हूँ यह कि इसके नाते
मेरा मंसूर की तर्ज पर
कत्ल किया जा सकता है
पर मैं यह भी जानता हूँ
कि मैं मंसूर नहीं।
(अप्रमेय)

Friday, February 7, 2020

समझ सको तो कविता नहीं तो अंगारा

झोपड़ी नाँव और साधू
हमेशा वीराने में होते हैं
इस बात को कहते हुए
बस एक सुधार करना चाहता हूं
झोपड़ी अब शहर के बीचो-बीच
सियासत की मुकुट होटीे है,
इसे तुम अगर समझ सको तो
यह एक कविता है
नहीं तो आग उगलती अंगारा।
(अप्रमेय)

वसन्त आ चुका है

बाहर बे मौसम बारिश हो रही है
सुना है इस साल भी
कई लोग ठंड से मर गए,
एक बुजुर्ग ने कभी मेरे इस वक्तव्य पर
मुझे ठीक करते हुए कहा था
ठंड से कभी किसी अमीर को
मरते हुए सुना है ?
यही सोचते हुए हर साल की तरह इस साल भी
वसंत आ चुका है
कभी मैंने एक कविता लिखी ही नहीं
गाई भी थी कि
तुम मनाओ वसन्त हम मनाएंगे फिर कभी
का स्वर अब भूलता जा रहा हूँ
एक गूंज कानों के अंदर बराबर बजती है
डॉक्टर कहता है यह एक रोग है
मनोवैज्ञानिक इसे मनोरोग की श्रेणी में डालता है
एक बाबा-फकीर सा इसे
अनहद नाद कह कर मुस्कुरा देता है
मेरी बूढ़ी माँ कुछ नहीं कहती
मुझे देखती है और अपने आँचल से
मेरे कानों को ढक देती है।
(अप्रमेय)