झोपड़ी नाँव और साधू हमेशा वीराने में होते हैं इस बात को कहते हुए बस एक सुधार करना चाहता हूं झोपड़ी अब शहर के बीचो-बीच सियासत की मुकुट होटीे है, इसे तुम अगर समझ सको तो यह एक कविता है नहीं तो आग उगलती अंगारा। (अप्रमेय)
No comments:
Post a Comment