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Thursday, June 1, 2017

पारा

कितना आतुर है
दर्पण के भीतर
तुम सा दिखता हुआ,
भूत का रंग
और वर्तमान की तरलता
कैसे बदल देती है छवि,
भविष्य में संभावनाएं हैं
जो ये बोल दे
कि दर्पण तो पारा था
जो छिटकता रहा
इन तीनों के आर-पार ।
(अप्रमेय)

दलाली

तुम्हारे होने
और तुम्हारे न होने के बीच
एक टीस के अतिरिक्त 
कोई और सेतु नहीं है,
मैंने गलती से 
उस सेतु पे चल कर
तुम्हे पाना चाहा,
नई दुनिया में
सेतु का अर्थ पार होने के अर्थ में
नहीं ग्रहण किया जाता
दलाली से लिया जाता है !
(अप्रमेय)

राम नाम रटे जाते हैं

ये जो पुकारते हुए से सुनाई पड़ जाते हैं
गौर से देखो कुछ छुपा कर 
बस आवाज लगाए जाते हैं,
मैंने चुप हो कर बस एक बात 
पूछ ली थी उनसे 
सरे जिंदगी वे बस इसका
जवाब दिए जाते हैं
दुनिया ने जिनको भगवान् कहा
वे चुप है सदियों से
ये कौन हैं बिचारे
जो राम नाम रटे जाते हैं।
(अप्रमेय)

तारीख़

कैलेंडर जीवन से गायब हो जाना चाहिए
और अगर नहीं
तो मुझे तारिखों से मुक्त 
होने का कोई उपाय बताइए
आप समझेंगे कि मैं अब 
समय के पार होने की कोई बात कहूंगा
हुजूर मुझे इसके आर का ही रास्ता
बता दीजिए।।।
(अप्रमेय)

किस्मत

लकड़ी जल गई
क्योंकि वह सूखी थी
लाश जल गई
क्योंकि उसमें चर्बी थी,
जिंदा रहना रोग हुआ
मौत उसके बरक्स औषधि थी,
आँख है तो उठ गई
देख कर झुख पाई
यह उसकी फितरत थी,
हमको मिली जिंदगी 

या चाहे जो कुछ भी
कुछ हाथ में रही 

कुछ फिसल गई  
यह किस्मत थी ।
(अप्रमेय)

आदमी

एक शाश्वत अकेलेपन 
का विस्तार है आदमी
अपनी चुप्पी के बरक्स 
अपनी हत्या के लिए 
हथियार है आदमी
सदियों से अपने ही हमशक्ल
को देखते-देखते परीशां है आदमी ।
(अप्रमेय)

बात हुई

मैंने कल उससे बात की 
एक बच्चे की तरह 
और समझा 
एक-एक चीज झरती हैं कैसे 
उसकी आँखों से, 
वह रो नहीं रहा होता
पुकार रहा होता है
अस्तित्व की सबसे प्रबल भाषा में
पर तुम्हारे लिए यह अवसर नहीं
 कि तुम समझ सको उसकी भाषा,
मैंने कल उसके पास बैठ कर
धरती की गर्माहट को महसूस किया
और एक सत्य को स्वीकार किया
कि हम कुछ नहीं कर सकते अब
सिवाय इसके
कि धीरे-धीरे सभ्यता के नाम पर
हम उसे खोते जाएँ
और वह हमारी ही तरह बन कर
अपनी पुकार को दफ्न करता जाए धीरे-धीरे|
(अप्रमेय)

होली

उन्हें दिखाई दिया कि 
होली उनके बाप का त्योहार नहीं,
वे कहते हैं कोई था मनु 
जिसने होली को भी 
लोक से छीन कर अभिजात्य का पर्व घोषित कर दिया,
वे कहते थे और कहते-कहते
हमें और तुम्हे अलग कर गए ,
पर तुम कहते हो
अलग होने के बाद !
समझ में नहीं आता ।
तुम मनु नहीं
और बुद्ध भी नहीं
तुम्हें तो मालूम ही है
इस छद्म दीवार का रहस्य
जिस पर जाति के रंग-बिरंगे
विचार चस्पा हैं,
आओ होली मनाएं
और उन्हें बताएं
कि खोपड़ी के अंदर का यह रंग
बहुत पुराना है
और आदमी के चहरे को
रंग कर हमें सभी के बाप को
भुलाना है
(अप्रमेय)

सपने और क्रान्ति

ये विचार किस क्रान्ति की देन है कि
जिंदगी का सफर 
पहिए के ही भरोसे है !
कभी एकांत में बेमतलब 
बजता है शंख और 
 बिना ढोल के किसने कह दिया
नहीं गाए जा सकते पद,
कविता में कभी-कभी
शब्द घुसने को राजी नहीं होते
पर फिर भी बिना अर्थ के
तुम ला सकते हो कोई शब्द
मैंने कल सपने में पढ़ी
सपने की कविता
जहाँ कुंए के की पाट पर
उगा था कोई खूबसूरत फूल
और आदमी के गर्दन पर
रस्सी की सी थी गाँठ
जिसको वह अपने हाथों में लिए
इधर-उधर आ-जा रहा था पर
इतनी ही कविता सपने की
कविता नहीं थी
धीरे धीरे
पृष्ठ दर पृष्ठ
वह अभी बजेगी
जिसे सुनना और शेष रह गया है |
(अप्रमेय )

राम-राम

पेड़ खड़े हैं लहलहाते 
विश्व के आँगन में
देखो उनका नृत्य 
और आँख मिचोली करता हुआ 
खेल हवाओं के संग,
मैं देखता हूँ और
याद करता हूँ तुम्हे
जब बेफिक्री से मेरे ह्रदय के पास
जेब में हाथ डालते हुए
निकाल लेते हो निर्द्वन्द्व सब-कुछ
मैं कुछ कह पाऊं उससे पहले
तुम्हारा यह सवाल
घेर लेता है पूरा अस्तित्व
आकाश इतने दूर और ऊँचा क्यों है ?
कितने दिलचस्प होते हैं कुछ सवाल
जो उत्तर देने से नहीं
देखने के लिए मजबूर करते हों...
अखंड धरती पर फैले दूब-झाड़,
पेड़ों के बीचो-बीच कोई बुलबुल
 जब अपनी बोली में शहद का व्याकरण
समझा रही होती है...
कोई कुत्ता शहर की तरफ से
हांफता-भागता
जिंदगी से प्यार और मोह की
अज्ञात कविता लिख रहा होता है,
इससे ज्यादे और अर्थ की सार्थकता
आज के लिए अतिरेक की तरफ बढ़
जाना होगा
तो भैया आज के लिए बस
राम-राम
(अप्रमेय)

सफर में कविता

उस फौजी ने बताया 
तोप दागते हुए मुंह 
खुला रहना चाहिए,
बचपन में माँ का
और बड़ा मुंह खोलो
 डपटते हुए हाथों में लिए
खाने का कौर याद आया कि
अचानक फौजी ने उन्ही
अंतरालों के बीच दुहराया
नहीं तो फटेगा कान का परदा,
परदा और आदमी
अलग-अलग जगह कैसे
बदल जाते हैं,
सीमा पर फटता है कान का परदा
और शहर में लटकते हैं
थान के थान परदे
शहर के कान की तरह,
सफर में चलती है गाड़ी
आदमी भी चलता है
और चलता है फौजी का हाथ
सहलाते हुए अपने सर के बाल,
सफर में कुछ प्रश्न कितने
अटल होते हैं जैसे
तुम्हारा क्या नाम है ?
और कहाँ जाना है ?
मेरा बच्चा दर्ज करता है
हथौड़े की चोट की तरह
शहर का और अपना नाम
बस अगले स्टेशन पर
एक स्मृति की बाबत
उतर जाने की तरह,
मैं मेरा बच्चा और
साथ में आश्वस्थ मेरी पत्नी
जानते हैं और मानते हैं
यह ट्रेन सदा ऐसी ही
चलती रहेगी |
(अप्रमेय )

गोजी हुई लकीर

तुम्हारी गोजी हुई लकीर 
मेरी डायरी में 
अचानक दिख पड़ती है 
रात मे अचानक जग जाने जैसे,
रात कभी 
दिन कभी
तुम जब भी दिख पड़ते हो
मेरे पन्नो में
छेड़ जाते को कोई प्यारी धुन,
सन्नाटे में अचानक कभी-कभी
कौंधती है चमक
तुम्हारी गोजी हुई लकीर सी।
तुमने गोजा नहीं था
मेरी डायरी में
गुज गए थे
अपनी पूरी मस्ती लिए
पूरी कहानी लिए
आओ मै तुम्हारे लिए
कोई शब्द तराशूँ !
(अप्रमेय)

यहाँ बैठ कर

यहाँ बैठ कर
तुम्हारा खयाल 
बेसुरे मंगलाचरण
और पंखों के बीच फड़फड़ाती 
अब बुझी कि तब मंगलदीप लौ 
से ज्यादा कुछ और नहीं है,
आदमी का होना
दूसरे आदमी के लिए
बस टपक पड़े तोते के
आधा से ज्यादा खाए
आम के पकनारी की तरह है
जिसके गिरने की ख़ुशी
केवल उन गरीब बच्चों को है
जो चूहे को भूज कर
कुछ मीठा खाने के लिए
उन्हें बटोरते हैं,
दुनिया में हसीन सपनों की किताब
किसने सबसे पहले लिखी
यह तो नहीं जानता
पर जिंदगी में दुःख का विस्तार
किसने किया
इसका जवाब सबका ह्रदय
बहुत अच्छे से जानता है ।
(अप्रमेय)

सत्रह साल पहले

पहले सन्नाटों के बीच 
सुनाई पड़ती थी
झींगुरों की आवाज 
आज उस आवाज के पीछे
सुनाई पड़ा सन्नाटा,
सत्रह साल पहले
तुम्हे पा लेने की ललक थी
और आज तुम्हारी खबर
काफी होती है
जीने भर के लिए
मैंने सत्रह साल पहले
पूछना चाहा था सवाल
चाँद-तारों के बारे में
आज दिखा अँधेरा
उनके पिछवाड़े से
कुछ न बताते हुए
सत्रह साल पहले
तुमने नहीं पुकारा मेरा नाम
जाने क्यों चलते-चलते
रास्ते पर लिखने का मन हुआ
आज तुम्हारा नाम ।
(अप्रमेय)

स्मरण

कॉपी किसी की भी 
हो सकती है 
जिसपर तुम्हारा स्मरण 
किसी और का नहीं पर 
अपने-अपनों को याद करते 
उनके हिस्से का हो सकता है,
स्मृतियाँ अक्षरों में काश
ला पाती तुम्हारी तस्वीर
तो एक-एक शब्द
कैसे उभर आते
अपनी-अपनी जगह
अपना-अपना रूप लिए,
मैं सोचता हूँ ऐसे में तुम्हारे लिए
कि इस पन्ने पर कहाँ लिखूं जंगल
जिस पर हरे-हरे पत्तों और
डंठलों के बीच बिठाऊं
रंग-बिरंगी चिड़िया,
दूर नीले आकाश के नीचे
अपने हाथों को उठाये पहाड़
जैसे न्योता दे रहे हों हमें
ढिंग अपने पास बैठने के लिए,
लिख दूँ दूब कि
कुछ नरम हो जाएँ अक्षर
जो सहलाएं तुम्हारे पाँव,
झरने और तुम्हारे खुले बाल
शब्दों में पानी सा कुछ
ऐसे घुल-मिल जाएँ कि
स्वर और ताल के संतुलन से
शब्द में से कुछ बहें राग,
पन्नों और शब्दों के बीच
काश कोई खिड़की होती
जहाँ से अगर तुम
निहार रहे होते यह पुण्य स्मरण
तो मैं तुम्हे पुकारता और
तुम जहाँ भी जाना चाहते
तुम्हे ले जाता |
(अप्रमेय )

आदमी और बच्चा

बादल गरजते हैं 
बच्चा डरता है 
माँ समझाती है 
भगवान् ने डांट लगाई होगी
बच्चा अर्थ ग्रहण करता है 
बादल की घटाओं से दूर
अपने सदृश्य किसी
भगवान् के बच्चे की,
कल स्कूल जाना होगा
सुबह-सुबह
बदल हट गएँ होंगे
स्कूल की बिल्डिंग
चाक-चौबंद
यह नहीं बताती
कि उसे किसने बनवाया
भगवान् भी नहीं करते दावा
और मालिक को मालूम है
कि किसके सामने मिल्कियत
का करना है दावा ,
बच्चा स्कूल में
अपने जैसे प्यारे-प्यारे
दोस्तों के साथ
समय धीरे-धीरे गुजारेगा
और एक समय बाद
बज उठेगी छुट्टी की घंटी
एक अदृश्य रस्सी भगवान् सी
खुल जाएगी उन सभी के गले से
सभी चहक के शोर मचाएंगे
और अपना बस्ता लादे
अपने घर को भाग जाएंगे ।
(अप्रमेय)

कली और फूल

सोचता हूँ कि कुछ लिखूं
कि मन में आ गया 
पिछवाड़े लगाया हुआ पौधा
अभी आयी नहीं है उसमें कली
सोचता हूँ
कली और फूल में
सुंदर कौन है
इस पर
मेरे ह्रदय का कवि
मौन है ।
(अप्रमेय)

उसने-तुमने

चाँद को ले लिया उसने
और चरखा को तुमने 
मैंने इधर एक गीत गाया 
और नोच ली एक पंखुड़ी 
मेरे ह्रदय में खिले गुलाब के पुष्प से
खुशबू मौजूद है अभी
कि दी गईं सलामियाँ
कलम किए गए सर को देख कर
एक पंखुड़ी और नोच दी मैंने
कि बन गई एक कविता हमारी
मैंने देखें हजारों देश-भक्त और
चखना चाहा स्वाद देश भक्ति का
हाँ आख़िर तक नहीं समझ पाया
कि अचानक एक दिन नज़र पड़ी
भूख की तलाश में गुम सी
एक बच्चे की लाश
न कोई गीत गाया और
न ही कह पाया कोई कविता
बस नोच डालीं
सभी पंखुड़ियां ह्रदय से
और फिर
झर गईं सभी पत्तियां भी
अंदर ऐसा तूफ़ान आया ।
(अप्रमेय)

माँ

"माँ"
यह शब्द 
काल के पृष्ठ पर 
प्रकृति द्वारा अंकित 
सुंदरतम चित्र है 
जिसके चंद्रबिंदु में
वह तुम्हे ही तो
गोद में लिए बैठी है
जब तुम इसे बुलाते हो
तब यकीं मानों उसी वक्त
सात स्वरों केअकाट्य नियम 

टूटते हैं
और ढहता है 

लय का साम्राज्य
माँ तुम्हारा स्मरण
केवल स्मरण नहीं
एक ऐसा संबल है जिसका साथ
पृथ्वी को रस से और 

जीवन को नियमों के पार की भाषा
बतलाता है
तुम्हारे हाथ मेरे सर पर
अनंत मौन सा आँचल
उढ़ा कर मुझे नींद की लोरी
सुनाता है ।
(अप्रमेय)

एक कहानी

एक कहानी हाथ लिए
ढूंढ रहा हूँ दर बदर
किसको सुनाऊँ 
किसको बतलाऊँ
कोई नहीं ख़ामोश इधर।
(अप्रमेय)

एक शेर ....

देख लो कि तस्वीरों के साथ ज़िंदा हूँ मैं अभी
एक दौर आएगा लोग पूछेगें ऐसा भी था कोई ।
(अप्रमेय)

शाम

शाम लौट आने के लिए 
या होती है किसी की याद में 
उलझ जाने के लिए
चाय की चुस्की एक चुप्पी को 
घोट लेती है हर शाम
मैंने सुबह से ज्यादा हर शाम
चिड़ियों को ज्यादा
चहचहाते या कहें चिल्लाते पाया है
चिड़ियों का घर नहीं
घौंसला हुआ करता है
वैसे ही खाना नहीं
दाना हुआ करता है
हम शाम बिताने के बाद
सुबह की योजना बनाते हैं
वैसे ही चिड़ियों के लिए
योजना के समानांतर कोई
शब्द अबतक गढ़ा क्या ?
(अप्रमेय)

प्रेरणा

वहां नहीं मिली मुझे प्रेरणा 
जहाँ पढ़ा था मैंने 
भूख से गई जान
वहां भी नहीं निकली थी आह
जहाँ आदमी को 
पकड़ लिया गया था
जेब काट कर भागते हुए
कल शाम सब्जी मंडी में
देर रात के बाद
बंद होती दूकानों के बीच
वह सभ्य महिला
बीन रही थी
इधर-उधर पड़ी सब्जियां
मैंने पूछ ही लिया बहन
इसका क्या करोगी
उसने कही अपनी बात
और सच कहूँ
मुझे सुनाई पड़ी एक कविता
जिसके स्वर तो मैं यहाँ
नहीं सुना सकता
पर सुना रहा हूँ वह कविता-
बच्चे कर रहे हैं मेरा इंतज़ार
मां पैसा लायेगी और साथ
कुछ मिठाइयां भी और
आज हम सब मिल कर
खाएंगे भात के साथ भाजी भी
अब आप ही बताइये भाई साहब
कुछ काम मिला नहीं
तो पैसे कहाँ से आएंगे
मिठाई न सही
पर मेरे बच्चे भात-भाजी
तो खा पाएंगे ।
(अप्रमेय)

आज-कल

अचानक एक भद्द सी 
आती है आवाज 
और खुल जाती है नींद मेरी
रात को जैसे
गिरा हो पिछवाड़े 
पेड़ से पक कर कोई आम
बिस्तरे पर बाग़ नहीं होता
और कितना भी
कूलर कर ले शोर
आँधिया नहीं आती
अक्सर कई दिनों से
ऐसे ही अचानक
टूट जाती है नींद मेरी
और धड़कन
सीने से खिसक कर
कानों के पास
चली आती है मेरी ।
(अप्रमेय)

यहाँ से

लटकी अटकी हुई टहनियों
को क्या पता 
फल कब आएंगे
और जब आएंगे 
तब क्या वे उनका 
स्वाद भी ले पाएंगे
जो पत्त्ते बन नहीं पाए फूल
उनके पास क्या होता होगा
वृक्ष क़ानून,
जड़ों ने ऊँचाई के साथ
फुनगियों से
कबका नाता तोड़ लिया
अतल गहराई में वह सदियों से
अब किससे मिलना चाहती हैं,
हवाएं काश थोड़ा ठहर पातीं
इन वृक्षों के साथ
तो यकीं मानिए
इस धरती के ऊपर
आकाश का नहीं होता नीला रंग
पेड़ की फुनगियां
धरती की तरफ और उनकी जड़ें
हथकड़ी बन कर
जकड़ रही होती
पूरा सूर्य-मंडल।
(अप्रमेय)

घाट

घाट के तट पर 
बांस का खूंटा 
कब तक तुम्हे 
रोक पाएगा बंधु
एक दिन न सही 
दूसरे दिन वर्षा जल
घेरेगी उसे चारों तरफ़
कब तक रह पाएगी
जमीन सख़्त उसके
चारों तरफ़,
खूंटा है वहां
तो बंधेगी ही कोई
और नांव तुम्हारी तरह
फिर गरजेगा बादल
फिर बरसेगा बादल
आएगा तूफ़ान
और तुम्हारी नांव को
आखिर एक दिन
बहा ही ले जाएगा ।
(अप्रमेय)

इतिभास

चीन की राजकुमारियों 
ने बहुत पहले ठोंके थे 
अपने पैर छोटे बनाने के लिए
हमने ठोंकी तकदीर 
पुराणों में उपनिषदों के बरक्स
आदमी सुंदर की खोज में
देता रहा वक्तव्य
और इतिहासकार उनको
टांकते उघाड़ते बनाते रहे नारे
अनुभव के कितने नजदीक है
यह नया शब्द -'इतिभास'
इसे इस नए समाज में
समझ के समझाना होगा ।
(अप्रमेय)