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Thursday, June 1, 2017

सफर में कविता

उस फौजी ने बताया 
तोप दागते हुए मुंह 
खुला रहना चाहिए,
बचपन में माँ का
और बड़ा मुंह खोलो
 डपटते हुए हाथों में लिए
खाने का कौर याद आया कि
अचानक फौजी ने उन्ही
अंतरालों के बीच दुहराया
नहीं तो फटेगा कान का परदा,
परदा और आदमी
अलग-अलग जगह कैसे
बदल जाते हैं,
सीमा पर फटता है कान का परदा
और शहर में लटकते हैं
थान के थान परदे
शहर के कान की तरह,
सफर में चलती है गाड़ी
आदमी भी चलता है
और चलता है फौजी का हाथ
सहलाते हुए अपने सर के बाल,
सफर में कुछ प्रश्न कितने
अटल होते हैं जैसे
तुम्हारा क्या नाम है ?
और कहाँ जाना है ?
मेरा बच्चा दर्ज करता है
हथौड़े की चोट की तरह
शहर का और अपना नाम
बस अगले स्टेशन पर
एक स्मृति की बाबत
उतर जाने की तरह,
मैं मेरा बच्चा और
साथ में आश्वस्थ मेरी पत्नी
जानते हैं और मानते हैं
यह ट्रेन सदा ऐसी ही
चलती रहेगी |
(अप्रमेय )

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