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Tuesday, May 26, 2020

सपनों में साकार किया

तुम आओगे नहीं
ये मुझे मालूम है
एक झबराये पेड़ को देखते हुए
मुझे ऐसा अनुभव हुआ
तभी जाने कहाँ से एक तितली
पत्तों के बीच से निकल पड़ी
और उड़ती हुई आंक गई
मेरे भीतर पीले रंग की स्मृति
मैंने चुप चाप शरण ली उस पेड़ की
दोपहरी की पीली धूप 
पीली छांव में बदल गई
पीला होता मेरा चेहरा
लोगों के लिए दुख का कारण बना
मैंने बुद्ध को याद किया
शिव को जपा
और उन सभी के साथ
पीले पड़ते सपनों को
सपनों में ही साकार किया।
(अप्रमेय)

Sunday, May 24, 2020

ढोंग

तुम्हारी सारी कथाएं 
महान बनने के ढोंग हैं
जो महान नहीं बन पाए 
मैं उन्हें बारम्बार प्रणाम करता हूँ
कथा के उन पात्रों की 
जिनकी लाशें भी चील-कौओं के काम आईं
कथा के उन पात्रों की भी जिन्होंने
बिना किसी दिव्यज्ञान के 
अपनी मौत मुकर्रर की 
और परवाह किए बिना
अपना काम किया
मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ,
तुम आकाशीय ज्ञान के
साथी हो मेरे भाई
जरा अपनी धरती पर 
कान सटा कर सुनना
जिसे तुम माँ कहते हो
वह कब से तुन्हें पुकार रही है
कुछ कहना है उसे इसके लिए 
एक भाषा तलाश रही है।
(अप्रमेय)

Saturday, May 16, 2020

ईश्वर डांट सुनना चाहते हैं

उन्होंने कहा ईश्वर वे चुप रहा
उन्होंने रचे पाठ वो सुनता रहा
गढ़ी मूर्तियां पहनाए वस्त्र
वह देखता रहा
सुबह-शाम गांव-गांव 
अब उन्हें छोड़
उन्हें सजाने वालों की 
चर्चा चलने लगी
यह सब सुनते, देखते 
मंदिर में खड़े देवता के प्रेम में
किसी ने रच डाला एक गीत 
दूसरे ने उसमें भरे कुछ स्वर
फिर धीरे-धीरे लोगों ने इस 
गूंज को बनाया मन्त्र और 
स्थापित हुआ एक  प्राणवान विग्रह
लोगों ने अपने अपने हृदय में
किए देवता के दर्शन
पहनाया एक दूसरे को माला
और अपने अपने कामों में लग गए
तब जब उन्होंने सजाया था ईश्वर 
कोई आकशवाणी नहीं हुई थी 
और अब भी वे चुप ही हैं
पर अब शायद लोगों ने यह जान लिया है 
कि गांव-गांव छप्पर-छप्पर
हर घर मे वे जन्म ले रहे हैं
सोहर सुनने के लिए
लोरियों को लय देने के लिए
शायद कभी वे मंदिर में रहते हों
पर नए सदी के भगवान को 
एकांत पसंद नहीं
वे अब घरों में रहना चाहते हैं
अपनी मां की डांट सुनना चाहते हैं।
(अप्रमेय)

Saturday, May 9, 2020

व्याकरण

व्याकरण के लोग 
शब्दों की थरथराती टांगों को
छड़ी की तरह पकड़े
हमेशा से देखते रहे आकाश
सदियों तक बच्चों की कई किस्तें 
उनके आकाश में निहारने के अर्थ को 
समझने में खप गईं

जिन्होंने नकल की ताबीज पहनी 
वे ही समझदार कहलाए
वे भी बड़े हुए आकाश को निहारते
और उन्होंने चली आ रही भाषा में कही
कुछ पुरानी हो गई भाषा की प्रतिध्वनि,

एक सयाने बच्चे ने उनमें से उन्हीं से 
पूछ ली तारों की कहानी 
और कहानी खत्म होने के बाद
अपने आप से किया एक प्रश्न
कि क्या पुरानी भाषा के समय
आकाश कुछ दूसरे रंग का होता था ?
तारे क्या और ज्यादा चमकते थे ?
भूख और प्यास क्या उन्हें 
हमसे अधिक सताती थी !
(अप्रमेय)

Sunday, May 3, 2020

शब्द और अर्थ

मैंने शब्दों को संभाला
उन्हें अपने हृदय की जेब में 
चुप-चाप रखते हुए 
प्रसन्न हुआ,

फिर कई रात एकांत में कोई 
स्वप्न सी छाया लिए
आता रहा मेरे सिरहाने,

मैंने एक रात घबरा कर 
उससे पूछ ही लिया 
कौन हो तुम ?
उसने कहा अर्थ !

मैंने उसे पुनः सुनने की कोशिश की
ऐसा लगा जैसे
वह अपनी ध्वनि में एक समय
कई अर्थों में बज रहा हो
और फिर मैं बेहोश हो गया,

सुबह होती रही शाम बीतती रही 
और रात इसी तरह 
घबराहट में पूरी तरह 
मेरे हृदय में धड़कती रही,

मैंने घबराते चीखते हुए कल रात
फेंक दिए वह शब्द जिसे 
चुप-चाप मैं उठा लाया था,

अगली सुबह जब नींद खुली तो
सूर्य मेरे दरवाजे पर 
रौशनी की गर्माहट को रोके 
खड़ा हुए था और अर्थ 
चुपचाप मुझे गोदी में संभाले
थपकियाँ दे रहा था।
(अप्रमेय)