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Friday, January 31, 2014

मैंने पढ़ रखा है


मैंने पढ़ रखा है किताबों में 
कि मुझे मुक्त होना है 
दुनिया से दुनिया में रहते हुए,  
मेरे जैसा आदमी इस पंचायत में 
सिर्फ जज का 
मेज पर पड़ा हथोड़ा है,
जो ठुकता है  
अपने सत्य को खंडित करता हुआ  
अपने ही विरुद्ध 
मैं डर जाता हूँ 
जी हाँ मैं निहायत 
डरपोक इंसान हूँ 
दुनिया में रहते हुए 
मुझे दुनिया से मुक्त होने की इच्छा है 
अपने शरीर को साबुन से रगड़ते 
साफ़ करते, आत्मा को झाँकने की तमन्ना है 
मकान के बेडरूम के साथ 
घर के कोने में 
मंदिर बनाने की मंशा है,
जी हाँ यह बातें निहायत असम्बद्ध लग सकती हैं 
उन बड़ी-बड़ी प्रार्थनाओं में 
या फिर दिख सकती हैं 
मामूली सी जयकारा लगाते हुए 
किसी बड़े धर्म रथ को खीचते हुए  
पर मुझे बूढी माँ के चश्मे के साथ 
पिता की लाठी के साथ 
बहनों के बच्चों के साथ 
और थोडा सा ज्यादे 
अपने बच्चों के साथ 
जलेबी खाते हुए 
उन अनाथ भगवान् के 
बच्चो की भी चिंता है। 
( अप्रमेय )

Tuesday, January 21, 2014

जिन्दा रहना है

उसे महज
जिन्दा रहना है
अपनी स्वांसों के खिलाफ
कपकपाये पैरों के
घुटनों के खिलाफ
उसे जिन्दा रहना है
जिन्दा रहने के खिलाफ
अपने ही पीठ को ढोते
छाती के हड्डियों में
घुसपैठ किये
ठण्ड के खिलाफ
अपनी ही आवाज़ के खिलाफ
जो भाषा के स्तर पर
इस अधेड़ उम्र में
गाली की तरह निकलती है
और कहीं से
ला नहीं पाती अनाज
वह जिन्दा है सुई की तरह
बीचो-बीच
भुत ,भविष्य की घडी में कसा
बीतता हुआ
बीतने के खिलाफ
वह महज
जिन्दा है
और इसीलिए
आज दो जून के बाद
उसे कभी कहीं से
मिल जाती है खुराक
जो उसे जिलाती रहती है
धूप से आती
अपनी ही परछाई के खिलाफ
मैं सोचता हूँ
मैं किस आर. टी. आई.
के दफ्तर में जाऊं
और इसके इल्जाम
का पता लगाऊं।

(अप्रमेय )






Thursday, January 16, 2014

ओवर-कोट

उसे इसकी फिक्र नहीं
कि वह जो उसने
पहना है ओवर-कोट
उसका यहाँ
इस वीरान रस्ते पर
जो शहर के पीछे
और नाली के बगल से
गुजरता है
कोई वास्ता नहीं बना पायेगा ,
महाशय ;
उसे कौन समझाए कि
जैसे कोट में
चिपके रहते हैं जेब
वैसे ही
कोट चिपके रहते हैं
बड़े-बड़े होटलों से ,
आप के स्वांसों की
लयबद्धता का गला घोटते
अचानक चिचियाते हुए
उसके पहिये
लोकतंत्र के तारकोल पर
रुकते हैं और
हवा-सिंघासन से उतर कर
लम्बी-लम्बी फरलांग लेते
घुस जातें हैं बंगलों में ,
महाशय ;
तुम्हे ठण्ड लगी
और तुमने
पता नहीं कहाँ से
पहन लिया यह कोट
उतार दो इसे
यह जचता ही नहीं
तुम्हारे इस गंदे शरीर पर ,
आदमी के तंत्र में
बने औजारों का
गरीबों से क्या लेन-देन ,
फर्क है आदमी-आदमी में
गरीब-गरीब में नहीं ,
तुम इस देश में
उनके अस्त्र-शस्त्र
भी नहीं हो सकते
जंगल के टूटे-सूखे हुए टहनियों
तुम्हे ओवर-कोट पहनने का
कोई अधिकार नहीं
(अप्रमेय )


उसे पता नहीं

उसे पता नहीं
शहर से दूर
अपने ह्रदय के अंदर
मैंने बसा ली है बस्ती
और जोड़ दिया  
हवाओं से उसकी स्वांस ,
मैंने खंडहरों में
जला दिया है दीप
और अपनी परछाई में
ढूँढ लिया है उसका साथ ,
उसे पता नहीं
सन्नाटों से
आती है उसकी आवाज
जिसमे मिला दिया है
मैंने अपने मन का राग ,
उजाले हर तरफ से
देखतें हैं मुझको
उसे पता नहीं
मैंने देख ली है उसकी आँख ,
उसे पता नहीं
धीरे-धीरे ठण्ड सी
आती उसकी लज्जा को
चिपका लिया है मैंने
स्वैटर के साथ
गर्मी में मुझे मालूम है
तुम झरोगी
मेरे माथे से
प्यास के साथ।
( अप्रमेय )

Friday, January 10, 2014

दे देना चाहता हूँ :

कुछ निकाल कर दे देना
चाहता हूँ तुमको
बहुत कुछ तो नहीं
पर थोड़ी नमी के साथ
अभी बची है गहराई
थोडा खुरदरा
बचा है सन्नाटा
थोडा सा दुबका लेकिन
हाँ अब भी बचा है प्यार,

कुछ निकाल कर
दे देना चाहता हूँ तुमको
बहुत कुछ तो नहीं
पर फिर भी
हताश ही सही
बची है उत्कंठा
आकाश को निहारने की
वीरान अनगढ़ जंगल की तरह
हाँ बे-हिसाब बची है तन्हाई ,

कुछ निकाल कर
दे देना चाहता हूँ तुमको
बहुत कुछ तो नहीं
थोड़ी बची है प्यास
पानी की तरह ठंडी
थोड़ी बची है याद
जीवन की तरह अनसुलझी
हा, अब भी बची है आस 
तुम्हे कुछ दे देने की। 

(अप्रमेय )

Wednesday, January 8, 2014

मेरा शहर :

मेरा शहर उदास दिखता है
जब मैं वहाँ नहीं रहता
वहाँ तब कोई नहीं जोड़ता
रास्ते पर थूके
पान की पीक का
लहू से गहरा सम्बन्ध ,
कोई नहीं दिखाता
आकाश से शहर में
उड़ाई हुई
ठहाकों और लफ्फाजों
की नयी क्रांति ,
जब मैं वहाँ नहीं रहता
उसे कोई बताता नहीं कि
शहर के रंगमंच पर
कोढ़ियों का रूप धरते
विज्ञान की लढ़िया को धकेलते
करम कर बाबू ऐ भइया .......
वही पुराना गीत गाते और
कितने घट गए भिखारी ,
जब मैं वहाँ नहीं रहता
तो उसे कोई नहीं समझाता
चौराहों के शक्ल में बदलती
और घटती वह गुमटियां
मेरा शहर उदास है
क्योंकि अब उसके
आँगन में नहीं फुदकती
गौरइया-चिड़िया

(अप्रमेय )

Tuesday, January 7, 2014

परदा और आदमी :

घर में टंगे परदे की तरह
कभी-कभी यूँ ही
बीत जाता है दिन ,
परदों का झूलता रहना
दुनिया में आदमी का
झूलते रहने की तरह है
और परदों पर बने सुन्दर फूल
आदमी के दिमाग में
चिपके सुन्दर सपनों की तरह हैं ,
मैं सोचता हूँ …
अगर ये सपने न होते
तो शायद ये परदे न होते ,
आदमी और परदे का रिश्ता
बहुत करीबी है
यह तब पता चलता है
जब कभी-कभी
यूँ ही बीत जाता है दिन ,
मसलन शांत कमरे में
लटका हुआ परदा
किसी बूढ़े की दाढ़ी सा दीखता है
और उसका टंगा रहना
आप को दुनिया में
टंगे रहने की खामोश हिदायत देता है ,
वैसे परदा मेरे ख्याल से
टंगा रहना चाहिए
हर खिड़की पर
ताकि आप देख न सकें बाहर
आज किसी को फुर्सत नहीं है
आप के घर के अंदर झाकनें में
सभी व्यस्त हैं कुछ ढकने में
अपने-अपने घर के
खिड़कियों पर परदा लगाने में।
( अप्रमेय )  

Friday, January 3, 2014

आदमी :

जो जान सका
वह यही कि
तुम बेहतर हो
जो तुम्हे नहीं चाटने पड़ते
जूठे पत्तल
और न ही खानी होती है लात
मेज के नीचे बैठ जाने पर,
मान ही नहीं
यह स्वीकार कर लिया
आदमी अपनी क्षमता से
रेंगता हुआ छिपकली है
कभी-कभी
दूसरे शहर में दुम दुबकाये
वह कूकुर है
जिसकी मंजिल पर दृष्टि नहीं
भागने में ही सृष्टि है ,
अद्भुत हैं तम्हारी आँखे
जो चील की तरह
चिपकी हैं तुम्हारे पास
तुरंत उड़ कर नोच ले आती हैं
कानून को ठेंगा दिखाते
गोरी-सांवली चमड़ियां,
तुम्हारे हाथ की लकीरे-लकीरे नहीं
भगवान् का दिया एक सर्टिफिकेट है
जिसे तुम जागते हुए ही नहीं
सोते हुए भी एक अनशन की तरह
इस सरकारी दुनिया में
इस्तमाल करना जानते हो
आओ हम-सब अपना सम्मान करे
एक दूसरे का गुणगान करे।
(अप्रमेय )