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Friday, January 3, 2014

आदमी :

जो जान सका
वह यही कि
तुम बेहतर हो
जो तुम्हे नहीं चाटने पड़ते
जूठे पत्तल
और न ही खानी होती है लात
मेज के नीचे बैठ जाने पर,
मान ही नहीं
यह स्वीकार कर लिया
आदमी अपनी क्षमता से
रेंगता हुआ छिपकली है
कभी-कभी
दूसरे शहर में दुम दुबकाये
वह कूकुर है
जिसकी मंजिल पर दृष्टि नहीं
भागने में ही सृष्टि है ,
अद्भुत हैं तम्हारी आँखे
जो चील की तरह
चिपकी हैं तुम्हारे पास
तुरंत उड़ कर नोच ले आती हैं
कानून को ठेंगा दिखाते
गोरी-सांवली चमड़ियां,
तुम्हारे हाथ की लकीरे-लकीरे नहीं
भगवान् का दिया एक सर्टिफिकेट है
जिसे तुम जागते हुए ही नहीं
सोते हुए भी एक अनशन की तरह
इस सरकारी दुनिया में
इस्तमाल करना जानते हो
आओ हम-सब अपना सम्मान करे
एक दूसरे का गुणगान करे।
(अप्रमेय )








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