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Thursday, July 30, 2020

स्वप्न

बारिश में
शहर की गलियों में
उतर आती है नदी,
एक छोटी बच्ची
कागज की नांव बनाए
तैराती है अपने सपनें
पानी धीरे-धीरे बह जाता है
किसी खेत में
नांव की वह चुगदी
सदा के लिए मिट्टी हो कर
पेड़ों या हरी-भरी घासों में 
तब्दील हो जाती है,
सपनें बोलते नहीं 
आदमी के अंदर एक दृश्य बनाते हैं
कभी-कभी मुझे लगता है
यह सारी वनस्पतियां 
किसी के देखे हुए स्वप्न हैं।
(अप्रमेय)

Saturday, July 25, 2020

देखना

महल की अटारी से नहीं
छप्पर की छेद से 
सितारों को देखना
ये अंधेरा कितना गहरा है
किसी गरीब की आँख से 
देखना
वह देश के सिपहसलारों 
की बात किया करता है
कुछ जरूरी सवालात उससे
जरा पूछ कर
देखना,
जो खोज रहे हैं राह
वहीं जहां चंद लोग पहुंचे हैं
उनकी बात करने के अंदाज़ को
जरा गौर से
देखना।
महल की अटारी से नहीं
छप्पर की छेद से 
सितारों को देखना
(अप्रमेय)


Thursday, July 16, 2020

मेरे न होने का अर्थ

मैंने अपने आप को हटा लिया
और कमरा भर गया हवाओं से
कोयल की गूंज, आसमां की शांति
और धरती की नमी 
धीरे-धीरे मेरे कमरे के सोफे पर बैठते 
हुए अपने पैर पसार लिए मेज पर
कोई चींटी उनके पांवों तले रौदी नहीं गई
सन्नटा मेरे न होने का
भर रहा था अर्थ
हर खाली पड़े बर्तनों में
घर के पिछवाड़े हरिश्रृंगार की छांव तले
जाने कहाँ से सूर्य एक चम्मच धूप लिए
कोई संदेशा ले आया,
मेरा न होना 
मेरे होने के अस्तित्व से गहरा है
ये जान कर मैंने मन ही मन
मृत्यु को गले लगाया।
(अप्रमेय)

बारिश के बाद

बारिश के बाद
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गद्य की चौहद्दी से दूर 
कविता के व्याकरण से पार
बारिश को देखना 
केचुए की तरह खेत से 
बाहर निकल आना होता है,
पेड़ की शाखाओं की तरह
एकदम गीला होकर भाव से गदराए हुए
साष्टांग मुद्रा में पड़ जाना होता है
बारिश में आज भीगते हुए
मैंने सुना भाषा को बरसते हुए
आसमान गरज कर उसे डांट रहा था
कुछ कहने से उसे रोक रहा था
पहाड़ों ने, पेड़-पक्षियों ने, तलहटी ने
सभी ने उसकी गर्जना को खारिज किया
भीग कर बारिश के साथ गप्पे लड़ाया
समुद्र और नदी-तालाब सभी तेजी से
लहरों में बुन रहे थे 
अपने-अपने राग-रागिनियाँ
बारिश झर-झर करते कह रही थी
अस्तित्व की कहानी
ईश्वर चुप-चाप सुन रहे थे 
अपनी भूली कहानी।
(अप्रमेय)

हम

छत मिले न मिले
आकाश हमारे सपनों में जिंदा रहेगा,
तुम अपने नाम के झंडे फहराओं
हम चिड़ियों के पंख को 
फहरता देखते रहेंगे,
तुम निकालते रहना फोड़ कर हमारे छत्ते
हम शहद सा जीवन के पेड़ में
इकट्ठे होते रहेंगे।
(अप्रमेय)

सफर में जिंदगी

सफर में जिंदगी
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सफर में जिंदगी और मैं 
अलग-अलग हिसाब से 
मिलते रहे
कभी पेड़ों के नीचे चुप-चाप
दाना चुगती चिड़ियों के पास
तो कभी सुबह की तैयारी में 
लटकते हैंगरों में आधे गीले आधे 
सूखते कपड़ों के पास,
जिंदगी की तमाम शक्ल 
आती रहीं और जाती रहीं
पर उनसे मन भर कभी 
मिलना नहीं हो पाया
सफर में हो जिंदगी 
तो अनायायास ही 
सफर में ही हो जाती है कविता 
मैं शीशे के सामने कभी- कभी 
छूता हूँ अपने हाथ-पाँव 
और धीरे से बरौनियों के नीचे 
आँखों के अंदर उतर कर ढूँढ़ता हूँ 
मंजिल का पता पर
वहां कोई टिकट नहीं मिलता 
जिस पर लिखा हो
शहर का नाम और वहां पहुँचने का समय 
सफर में जिंदगी और कविता 
कितनी दूरी और कितना भाव 
इकठ्ठा कर सकेंगे 
ये कौन जानता है !!!
(अप्रमेय )

एक आह

एक आह जो उठी 
बस इतना देखने भर से
कि इस महामारी में वह
रिक्शा चला रहा है,

सदियों से बैठे सर्प ने फिर
उठाया अपना फन
और डस कर फैला देना चाहा
व्याकरण का जहर,  

मैं चुप हूँ और कुछ भी नहीं लिखकर
बिना किसी लीपा-पोती के 
कवियों से क्षमा मांग रहा हूं
और कविता लिखने से 
फिलहाल इनकार कर रहा हूँ।
(अप्रमेय)

बारिश

बारिश को बारिश की तरह नहीं
शब्द के रूप में देखो 
धरती को सिर्फ धरती नहीं
एक कागज की तरह देखो
पौधों को सिर्फ पौधा नहीं
पूरी विकसित एक 
भाषा के रूप में सुनों
मेरी कविता को 
सिर्फ कविता नहीं
एक पागल का 
विलाप समझो।
(अप्रमेय)

पकड़ डीहा

पकड़ डीहा
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कुछ नाम स्मृतियों में
ऐसे टंगे हैं जैसे 
सुबह टंगा रहता है सूरज
शाम टंके रहते हैं तारे,
कुछ आकृतियां पीछे से
झांकती हैं ऐसे जैसे कोई दुल्हन
निहारती हो राह अपने प्रियतम की,
एक धुन भैंस की पीठ पर सवार होकर
बांसुरी पर निकालता है 
कोई सांवला लड़का
उसका नाम नहीं पता मुझे
मैं आंखे बंद कर के 
निहारता हूँ मानचित्र
किसी उपन्यास के कवर पृष्ठ की तरह
सड़क के किनारे 
एक दीवार पर लिखा देखता हूं 
पकड़ डीहा।
(अप्रमेय)