बारिश के बाद
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गद्य की चौहद्दी से दूर
कविता के व्याकरण से पार
बारिश को देखना
केचुए की तरह खेत से
बाहर निकल आना होता है,
पेड़ की शाखाओं की तरह
एकदम गीला होकर भाव से गदराए हुए
साष्टांग मुद्रा में पड़ जाना होता है
बारिश में आज भीगते हुए
मैंने सुना भाषा को बरसते हुए
आसमान गरज कर उसे डांट रहा था
कुछ कहने से उसे रोक रहा था
पहाड़ों ने, पेड़-पक्षियों ने, तलहटी ने
सभी ने उसकी गर्जना को खारिज किया
भीग कर बारिश के साथ गप्पे लड़ाया
समुद्र और नदी-तालाब सभी तेजी से
लहरों में बुन रहे थे
अपने-अपने राग-रागिनियाँ
बारिश झर-झर करते कह रही थी
अस्तित्व की कहानी
ईश्वर चुप-चाप सुन रहे थे
अपनी भूली कहानी।
(अप्रमेय)
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