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Friday, May 23, 2014

पेड़

पेड़ तुम पेड़ रहोगे
कब तक ?
आदमी की समझ में
कभी कटते
कभी फुनगते-झरते
तुम्हारा नाम
सिर्फ पेड़ है
एक झोले की तरह
जिसमे से निकाल कर मुहावरे
वह अपने शब्द 
सार्थक करता है ,
पेड़ तुम पेड़ न रहो
तभी आदमी
आदमी शब्द के शक्ल को
दुनिया के किताब में
उतार सकेगा ,
सभ्यता की शक्ल को
शब्दों से निकलना होगा
मिटना होगा पेड़। ....
पेड़ तुम पेड़ न रहो
तभी समझी जा सकेगी
फूल सी उगी कविताएँ।


( अप्रमेय )
  

Tuesday, May 20, 2014

इस एकांत में

इस एकांत में 
आसमान के नीचे 
यह पेड़ खुरदुरे 
अपने को जमीन में गाड़े 
तुम्हारे पैर से दिखते हैं,
पर 
हमने सीखा है
चरण को छूना,टांगो को नही
हे परमात्मा !
तुमने सबकुछ तो दे दिया हमें 
अपने चरणों के अतिरिक्त
(अप्रमेय)

महल

महल की दीवारें 
छत को टांगने के लिए ही नहीं 
तुम्हे अन्दर आने के लिए और 
तुम्हारी कल्पना की आँखे को
बंद करने के लिए
खड़ी हैं,
तुम दुनिया के
बेलगाम पर सबसे अनुशाषित
अनूठे घोड़े हो
जो अस्तबल की चौहद्दी से बाहर
अपने हिनहिनाने को
शब्द ब्रह्म समझते हो,
तुमने कैसे मान लिया
यह नाल जो ठुकी है
तुम्हारे खुरों में
यह आविष्कार है सभ्यता का,
आओ तालाश करें और समझे
संबंधों के उभरते तकनीक का
आत्मा की पीठ पर
बिछती कीमती
जीन का I
(
अप्रमेय )