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Friday, April 18, 2014

पूरी दुनिया

पूरी दुनिया
दूरबीन से न दिख सकेगी
पर हम अपने बिस्तर के तकिए पर
सर टिकाए उसे महसूस कर सकते हैं,
सबसे पहले दर्द होगा
आप की पैर की हड्डियों में
जहाँ चीर कर बीच में उनमे
सपाट करते हुए रास्ते खोज कर
तारकोल बिछाए जाएंगे,
सूख रहे फोड़ो की पपड़ी सा गोल चौराहों पर
आप को दिखेंगी रास्तों की दूरी तय करती
टंगी आत्माए !
पूरी दुनिया
कंकरीट के जंगलो की सी  
फ़ैली दिखाई पड़ेगी
जिसमे ज्यादातर आदमी घर खोजते
भटके नज़र आएंगे |
मैं देखना चाहता हूँ और समझना भी
कि आदमी...आदमी है या
अपने आप को सिद्ध करता हुआ कोई मशीन
जिस पर शब्द हो या फिर कोई स्वर
प्रेम हो या कोई जिज्ञासा
सब कागज़ो पर छप के निकल जाएंगे |
(अप्रमेय)




Monday, April 14, 2014

हम देखते हैं

धूप निकल आई
हम देखते हैं और थोड़ा गरम हो जाते हैं,
हवा बहती है 
जुल्फ़ सुलझी उलझ जाती है,
यह देखो नई दुनिया 
प्यार करती नही नुमाइश करती दिख जाती हैं,
हम झांकते हैं छुप के बाहर और 
अंदर शरमा जाते हैं |

(अप्रमेय)

बैठ कर देख

एक शाम तो मेरे पास बैठ कर तो देख 
आँख में आँख जरा डाल कर तो देख |
फिर कभी नजरे चुरा नहीं पायेगा 
आवाज दिल की जरा सुन कर तो देख |
ये जो साजिशे शोर किया करती हैं 
जरा उनकी बदहाल खामोशियों को तो देख |
इनमे और गर्दों में कोई फ़र्क नहीं 
दिल में इनके जरा झांक कर तो देख | 

(अप्रमेय )


Wednesday, April 9, 2014

रेलगाड़ी

रेलगाड़ी में हमारा पीछे 
छूटता चला जाता है 
कुछ न कुछ ,
जैसे छूटती चली जाती है 
पटरियां धीरे-धीरे ,
हमारे न जाने की और 
गाड़ी में न बैठने की 
इच्छा छूट जाती है 
अंदर कमरे में 
पड़े कुर्सी के पास ,
बिजली का बिल 
और अखबार की कुछ बची खबरे 
तकिया के नीचे पड़ी रह जाती हैं ,
दूध वाले का बकाया 
और चाय की दूकान पर 
हमारे ठहाकों की गूंज
पेड़ पर झटहे की तरह 
छूटी और अटकी रह जाती है ,
स्टेशन पर ही छूट जाता है 
भीड़ के साथ अपना चेहरा ,
अभी मैं रेलगाड़ी के अंदर 
सामने बैठे बच्चे को देख रहा हूँ 
सोच रहा हूँ 
क्या इसका भी कुछ छूटा है
जैसे मेरा |
(अप्रमेय) 

Tuesday, April 8, 2014

मुझमें सिद्धि है


मुझमें सिद्धि है 
अपनी क्रूरता को 
सार्वजनिक न होने देने की 
और मालूम है 
कैसे पकड़े रहनी है दया 
जिससे वह बह न सके 
और इसके एवज में 
कहीं कोने में छुप कर 
जी भर रो लेने की |
पता नहीं कैसे और कब 
मैंने पालतू बना दिया 
अपनी आँख और कान 
मैं पूछता हूँ जब उनसे 
वकील की तरह 
वह दे देते है साफ़ जवाब 
मैंने तो सुने नहीं 
अपमान की आवाज   
देखे नहीं करुणा के हाथ |
मैं सिद्धहस्त हो चुका हूँ 
रोज-रोज 
अपने उबल रहे रक्त के भाप को 
हंसी के प्लेट से ढक देने में 
और कहीं मिठाई की दुकान पर 
चुप चाप उबलते दूध को 
रबड़ी बन जाने तक देखने में |
मैं सड़को का सिकंदर हूँ 
अपनी ग्लानी को सड़क किनारे 
कंकरीट पर थूकते हुए 
टहलना जानता हूँ |
मैं कृष्ण हूँ 
तुम्हारे प्रेम को 
अपने सिने के कब्रिस्तान में 
दफ्न कर देना जानता हूँ 
और इस एवज में 
बागीचे में कहीं सूख रहे 
पौधे को जल पिला कर 
जिंदगी को 
बखूबी निभाना जानता हूँ |
{अप्रमेय}

फिर से


फिर मोजरिया में 
गुथ गए टिकोरे 
फिर से हाथ 
ढूंढने लगे खिलौने,
जब बिछ गया ओसारा 
धान की चादर से 
उढ़ गया तन 
फिर माँ के आँचल से,
लो फिर ये टीस
आज उभर आई है
मन के खेत में
कहीं कोई फसल लहराई है।

अप्रमेय

पथ भ्रष्ट


क्रान्ति के
पथ भ्रष्ट हो गए रास्ते में
आदमी नारों की गूँज सा
केवल अब सुनाई पड़ता है,
या
टाइप किया हुआ भाषणों सा
ठन्डे बस्ते में बंद है
जिसे कभी खोला नहीं जाता
किसी मंच पर
न ही देखा जाता है
मंत्रणा करते
किसी गोपनीय कार्यालय में,
आदमी-आदमी नहीं
सिर्फ एक नारा है
जिसे क्रांति के ख़त में
एक कानूनी स्टैम्प की तरह
चिपका दिया गया है |
(अप्रमेय)