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Wednesday, April 9, 2014

रेलगाड़ी

रेलगाड़ी में हमारा पीछे 
छूटता चला जाता है 
कुछ न कुछ ,
जैसे छूटती चली जाती है 
पटरियां धीरे-धीरे ,
हमारे न जाने की और 
गाड़ी में न बैठने की 
इच्छा छूट जाती है 
अंदर कमरे में 
पड़े कुर्सी के पास ,
बिजली का बिल 
और अखबार की कुछ बची खबरे 
तकिया के नीचे पड़ी रह जाती हैं ,
दूध वाले का बकाया 
और चाय की दूकान पर 
हमारे ठहाकों की गूंज
पेड़ पर झटहे की तरह 
छूटी और अटकी रह जाती है ,
स्टेशन पर ही छूट जाता है 
भीड़ के साथ अपना चेहरा ,
अभी मैं रेलगाड़ी के अंदर 
सामने बैठे बच्चे को देख रहा हूँ 
सोच रहा हूँ 
क्या इसका भी कुछ छूटा है
जैसे मेरा |
(अप्रमेय) 

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