रेलगाड़ी में हमारा पीछे
छूटता चला जाता है
कुछ न कुछ ,
जैसे छूटती चली जाती है
पटरियां धीरे-धीरे ,
हमारे न जाने की और
गाड़ी में न बैठने की
इच्छा छूट जाती है
अंदर कमरे में
पड़े कुर्सी के पास ,
बिजली का बिल
और अखबार की कुछ बची खबरे
तकिया के नीचे पड़ी रह जाती हैं ,
दूध वाले का बकाया
और चाय की दूकान पर
हमारे ठहाकों की गूंज
पेड़ पर झटहे की तरह
छूटी और अटकी रह जाती है ,
स्टेशन पर ही छूट जाता है
भीड़ के साथ अपना चेहरा ,
अभी मैं रेलगाड़ी के अंदर
सामने बैठे बच्चे को देख रहा हूँ
सोच रहा हूँ
क्या इसका भी कुछ छूटा है
जैसे मेरा |
(अप्रमेय)
छूटता चला जाता है
कुछ न कुछ ,
जैसे छूटती चली जाती है
पटरियां धीरे-धीरे ,
हमारे न जाने की और
गाड़ी में न बैठने की
इच्छा छूट जाती है
अंदर कमरे में
पड़े कुर्सी के पास ,
बिजली का बिल
और अखबार की कुछ बची खबरे
तकिया के नीचे पड़ी रह जाती हैं ,
दूध वाले का बकाया
और चाय की दूकान पर
हमारे ठहाकों की गूंज
पेड़ पर झटहे की तरह
छूटी और अटकी रह जाती है ,
स्टेशन पर ही छूट जाता है
भीड़ के साथ अपना चेहरा ,
अभी मैं रेलगाड़ी के अंदर
सामने बैठे बच्चे को देख रहा हूँ
सोच रहा हूँ
क्या इसका भी कुछ छूटा है
जैसे मेरा |
(अप्रमेय)
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