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Wednesday, February 26, 2014

हे भोले

हे भोले 
प्रार्थना का यह मेरा फूल 
स्वीकार करो 
इस धूप-बाती के साथ 
मेरे सारे अपराध 
माफ़ करो ,
शब्द,पाठ ,पद,गान 
मुझे नहीं मालूम 
मेरे अज्ञान के इस मंत्र को 
अंगीकार करो ,
हे भोले 
प्रार्थना का यह मेरा फूल 
स्वीकार करो,
दिन,दुपहर ,शाम ,रात
जो भटक चुका 
उसे याद करो 
अपने इस पागल बालक के 
सत्य पथ का 
निर्माण करो
हे भोले  
प्रार्थना का यह मेरा फूल 
स्वीकार करो 
सत्य,असत्य,धर्म,दर्शन 
जिन्हे चाहिए उन्हें दे दो 
मेरे करुण रुदन पर 
जरा ध्यान धरो 
गोदी में ले लो प्यार करो 
हे भोले 
प्रार्थना का यह मेरा फूल 
स्वीकार करो। 
(अप्रमेय )

Tuesday, February 25, 2014

क्या तुम एक शाम नहीं हो

जिंदगी  …
क्या तुम एक शाम नहीं हो 
खाली कुर्सी 
बंद बालकनी 
सीढ़ियों पर उतरती-चढ़ती 
चाल नहीं हो 
जिंदगी  …
क्या तुम एक शाम नहीं हो 
कॉल बेल सी चिपकी 
फ्यूज बल्ब सी लटकी 
छत पर अरगनी पे सूखती 
विश्वास नहीं हो 
जिंदगी ...
क्या तुम एक शाम नहीं हो 
टूटे पत्ते 
भागती टहनिया 
बाहर टोटी से झरती 
प्यास नहीं हो 
जिंदगी  … 
क्या तुम एक शाम नहीं हो 
बुझी अंगीठी 
औंधे पड़ी कढ़ाई 
डिब्बी में जो है तीली 
आग नहीं हो 
जिंदगी  … 
क्या तुम एक शाम नहीं हो। 

(अप्रमेय )

Sunday, February 23, 2014

काश

काश.… 
मैं तुम्हे बिठा पाता 
अपने शब्दों में 
तुम्हारे होठो को 
सुनहरे शब्दों में पिरोकर 
गुनगुनाता उनको गीतों में ,
काश.… 
मैं तुम्हे सुला पाता 
अपने पन्नो में 
शब्दों के देह में जो अब तक
न जाग सकी सार्थक आत्मा 
उसे जगाते जेब में रख कर 
घूम पाता वादियों में ,
काश..... 
मैं रंग पाता 
तुम्हारे गदराये हथेलिओं पर 
शब्दों की  मेंहदी
नहीं अभी नहीं हैं 
मेरे पास 
मेरे पास नहीं, किसी के पास 
तुम्हारे तरह जीवित शब्द 
इसलिए 
आओ मन बहलाते हैं 
एक गीत गातें हैं 
कोई गजल सुनाते हैं 
तुम्हे याद कर के 
काव्य लिख-लिख कर 
चलो अमर हो जाते हैं। 

(अप्रमेय )


,

Saturday, February 22, 2014

मेरे बच्चे

दिन भर सवाल पूछते हुए 
नींद के बरक्स 
तुम सो जाते हो 
हाथों में कोई टुटा हुआ औजार लिए,
सोते हुए तुम्हारे हाथ में यह औजार 
औजार नही कोई शस्त्र सा दीखते हैं ,
जिसे नींद में तुम 
शायद इसे कहीं 
हम सब से दूर ले जाते हो ,
तुम्हारे तकिये के नीचे से 
मुझे मेरे जूते के यह फीते 
निकालते वक्त 
भय लगता है,  
आदमी की सबसे बड़ी खोज 
रही होगी आग 
पर यह जूता 
और उसमे गुथा हुआ यह फीता 
आदमी की इस खोज से भी आगे   
कही निकल जाने की एक चाल है,
मुझे सम्भालना है 
जो तुमने छितरा दिए हैं 
यह सब पेंच 
यह आदमी के दिमाग से 
ढीले हो कर गिरे 
कारखानो की इजाद हैं ,
मेरे बच्चे 
तुम सो गए 
पर मेरा मन 
तुम्हारी पलकों को देख कर 
उदास है। 

(अप्रमेय ) 






Thursday, February 20, 2014

याद

याद को किस जगह उसने छुपा रखा है 
उदासी के इस दिए में ख़ुशी की बाती लगा रखा है। 

हम तो निकले थे चलने को उनके साथ-साथ 
जिंदगी तुमने मुझे यह कहाँ बिठा रखा है । 

दर्द जो ढक चुका है अब आंच बन के सीने में 
कहीं वह उड़ न जाय राख बन के आंधी में। 

मत पूछ सिकंदर से उसकी हार की वजह 
अपनी हार से उनकी जीत की मशाल जला रखा है। 

( अप्रमेय  )


Tuesday, February 18, 2014

मेरा बेटा

मेरा बेटा 
अक्सर मेरे कंधे पर 
बैठना चाहता है 
पूछता हूँ 
तो कहता है 
इस पर बैठ कर मैं 
आसमान के बराबर 
हो जाता हूँ। 
मैं उसे समझाना नही चाहता 
कि बराबरी 
आदमी का सपना है 
और फिर बड़ा या छोटा होना 
जीवन का सत्य। 
मेरा बेटा 
मेरे कंधे पर बैठा है 
वैसे ही जैसे 
सीने पर लिपटी है उदासी 
पीठ पर लदी है तकदीर 
सर पर अटकी सी है बदहवासी 
जीभ पर दुबक गयी है भूख 
और बहुत कुछ 
जिसे मैं उसे नही दिखाना चाहता ,
मैं अपने बेटे को 
जब चाहता हूँ उतार देता हूँ 
अपने कंधे से। 
मेरा बेटा अभी 
मेरे जूतों में अपने 
नन्हे पाँव डाले 
घर में टहल रहा है। 

(अप्रमेय )

बूढ़ा होता बाप

फरवरी की इस सुबह-सुबह
बेटे के ब्याह के सामान को
मजदूरों के साथ
दुमंजिला मकान पर चढ़ाते हुए
डबलबेड का पावा पकड़े
अदृश्य हाथों से
अपने जिम्मेदारियों  के पाँव पकड़ लेना चाहता है 
बूढ़ा होता बाप,
बूढ़ा होता बाप
बूढ़ा नही दिखना चाहता
बूढ़ा होना समाज में
सम्मानजनक है
पर बेटों के सामने आज भी
बूढ़ा बाप शरमाता है। 
उसके जाग जाने के पहले
वह पहुंचा देना चाहता है
सारा सामन
सीढ़ियों पर चढ़ते
लड़खड़ाते हुए कदम
को वह छुपा लेना चाहता है
वह चढ़ता है धीरे-धीरे
मजदूरों के साथ
मजबूर होता हुआ
मजदूर और मजबूर बाप के
पसीने के फर्क को समझता हुआ
वह पंहुचा देना चाहता है सबसे बाद में
बहू का श्रृंगारदान
बेटे के जागने के पहले
उसे उसके कमरे में रखकर
आँखों से आंसू नही बहे पसीने को
पोछ कर छिपाने से पहले
अपने अक्स पर ख़ुशी का
पूरा भरोसा
शीशे में देख लेना चाहता है वह बाप।

( अप्रमेय )

Sunday, February 16, 2014

यकीन मानिये :

यकीन मानिये
चिड़ियों की उड़ान में
मैंने देखा है उन्हें
वर्तुलाकार पद्धति से
रिक्तता को पूरा करते हुए,
गाय के चारा चबाने में
मैंने देखा है
एक वृत्त को बनते हुए ,
कुत्ता जब मुँह खोलता है
मैंने देखा है
उसके मुँह के अंदर
त्रिकोण का बिम्ब बनाते हुए,
हिरण दौड़ते नहीं
प्रश्नवाचक चिन्ह बनाते हैं
चीटियां रेंगती जो
नजर आतीं हैं दरअसल
वह अदृश्य शब्दों के ऊपर
लकीर खींचती जाती हैं,
यकीन मानिये
दिन का उजाला
जो हमें दीखता है
वह सादा पन्ना है
और रात उस पर
लिखी हुई गाढ़ी स्याही।

(अप्रमेय )


Monday, February 10, 2014

कुत्ता :

कुता सिर्फ रखवाली ही नही 
शब्दों को भी 
सार्थक करता है,
कीचड़, जिसे हम कभी भी 
फूल की तरह नही छुपाते 
अपने किताबों के बीच  
वह कुत्ता 
अपनी उस बौखलाये शरीर को  
लोटा कर 
गर्मी से निजात पाते हुए 
कीचड़ को 
शब्द ब्रह्म के अर्थ सा 
सार्थक कर देता है ,
घर जो हम बनाते हैं 
अन्दर कोने कभी 
नितांत अकेले नहीं रह पाते
हम नही तो क्या 
हमारे सामान वहाँ काल से भी भारी 
रखे जाते हैं ,
मैं पूछता हूँ 
कुत्ता कोने में कुछ रखता तो नहीं ?
वैसे बाहर हम कुछ रख नहीं पाते
जैसे क्रोध
प्रेम  
उदासी,
ठीक थोड़े बदले अर्थ में 
कुत्ता आप की चहारदीवारी के बाहर 
कोने में अपनी मौजूदगी 
अपने अंदर समेटे 
वहाँ बैठा रहता है ,
शाम को आप बैठ जाये कहीं 
देख सकते है आप कुत्ते को टहलता 
और फिर आप जान सकते हैं 
कुत्ता उदास हो जाता है 
शाम ढलते-ढलते 
और रात होते-होते 
भयाक्रांत 
हम विदा कर चुके होते है उसे अपने से 
और रात व हमें 

पुकारता रह जाता है। 

(अप्रमेय )

Saturday, February 8, 2014

आजाद मुल्क की मंडी में :

बासठ साल के इस
आजाद मुल्क की मंडी में
मेरा शरीर जनाना नही
जिसे मैं बेच सकूँ
कि मैं बेच सकूँ
अपना मर्दाना शरीर
इस मुल्क में
इसके सिवा
मेरे पास कुछ है भी नही ,
कौन खरीदेगा यह
पुराना शरीर
जिसका उपभोग
इस परम्परित समाज ने
पहले ही मेरे आत्मा की किताब पर
लगा कर एक धर्म का लेबल
बांच लिया है ,
बोलो कहाँ बेचू 
इस मुल्क में यह घिसी हुई किताब,
इस दर्द से अभी-अभी
जो उभर आया हैं यह गीत
इसकी कहाँ करू नुमाईश
कि बिक सके यह गीत
कि सड़को पर अब वो कहते हैं
बिकते नहीं ऐसे कोई गीत,
कि गीत हो मर्दानगी के
जिससे जल सके मशाल
कि गीत हो दीवानगी के
जिससे मिट सके दिलों के मलाल
कौन खरीदे मेरे यह गीत
जो पहले ही गा दिए गए
कि इस मुल्क की मंडी में
कहा जाए यह
आजाद तकदीर।

(अप्रमेय )

Thursday, February 6, 2014

गाँव और माँ :

गाँव शहर से दूर
माँ सी एक
इंतज़ार करती गोद है
जहाँ आप की तरक्की नही
आप का होना सिर्फ महत्वपूर्ण है।
गाँव शहर की सड़को से दूर
माँ सी एक
खलिहान है
जहाँ जिंदगी भागती नही
सुनती भी है और सुना भी जाती है
वह गीत जो मन के खेत में फैला है 
जिसे प्रेम से वह किनारे कहीं सरिया जाती है।
गाँव निश्चित ही शहर नहीं
माँ की तरह
तुम्हारी समझ से थोड़ी देहाती औरत है
जिसे जीने का सौर नहीं
बेटों को जिला पाने में ही
पूरी जिंदगी खपा जाती है।
गाँव शहर नही गाँव है
पूरी तरह माँ के गंध सी
कहीं बगीचे में पत्तो के बीच
छुप कर पक रहे आम सी
कुछ पकाती हुई
तुम्हारे लिए कुछ छुपा कर बनाती हुई,
मैं देख पाता हूँ माँ
गाँव और तुमको
पर हिम्मत नही जुटा पाता
तुम्हे शहर में बुला कर
शहराती बनाने की। 

(अप्रमेय )

Tuesday, February 4, 2014

चक्की

चक्की की लय पर
सरकता है मन का घूँघट
अंदर वहाँ खलिहान है
जहाँ उसने मन मुताबिक
चला दिया  मशीन ,
वहाँ नहीं करेगा कोई मोल-भाव 
वहाँ से नहीं जायेगा
बाहर उसके घर आटा,
वहाँ अंदर हाँ अंदर
उसका पति है
पर वह नहीं जो बाहर है
उसका समाज है
पर वह नहीं
जो छिटका है इधर-उधर
अंदर जिसे वह चाहती है
उसके लिए घूँघट घूँघट नहीं
एक शान है।
(अप्रमेय )

Monday, February 3, 2014

वसंत

सुबह उठते ही भागा मैं
खुले आसमान के नीचे
रात पता चला था मुझको
आने को है वसंत ,
कुछ देर देखा बादल को
पूछा मैंने उससे सवाल
सो कर अभी उठा था
दे न पाया वह जवाब ,
मैं जगाता अभी उसे
कि गुलाब मुझसे बोल पड़ा
पड गये चक्कर में तुम भी
कविताएँ लिखने को ,
मैंने कहा वसंत में तो
सभी कवि कविता लिखते हैं
पढ़ा है मैंने वसंत में
भौरे आकर तुम्हे गीत सुनाते हैं ,
सुन जवाब मेरा
गेंदा मुझसे बोल पड़ा
गौर करो उस पेड़ पर
जो सूख गया है
झाड़ ली सब पत्तियां उसने
चुप-चाप खड़ा रह गया है
अब जाता नही कोई पास उसके
वसंत हो या ग्रीष्म ऋतु ,
लिखना ही है, लिख देना उसपर
अब क्यों खड़ा है वह वहाँ ,
बादल भी अब जग गया
मुझे देख
एक गीत गाने लगा ,
हम सब की आँखों में
अब भी बची है कुछ नमी
तुम मनाओ वसंत
हम मनाएंगे फिर कभी।

(अप्रमेय ) 

Saturday, February 1, 2014

यह सब किसलिए

यह सब किसलिए
जहाँ देखते हो तुम
इतनी बेपरवाह दुनिया में
आदमी का बच्चा
दम तोड़ देता है रोटी के लिए
और तुम कि
रोटी के जुगाड़ के पीछे
अपनी तिजोरी भरे जा रहे हो ,
जहाँ सूखता ही है पसीना
समय के झुर्रियों के बीच
जहाँ पसीजती ही है जवानी
खटिया पर दम तोड़ते हुए
वहाँ अपनी कमीज की खिड़की से
एक बटन खोले
किसके लिये अपनी जवानी को
कुदा देना चाहते हो ,
यह सब किसके लिए !
जहाँ बदल दी जाती है बैल की तरह तुम्हारी मर्दानगी
जो जुतती नहीं हलों में
न ही देखी जाती है खींचती बैलगाड़ियों को ,
तुम मर्द के कौन सा बाय प्रोडक्ट हो
जो अपने बीवी बच्चो के साथ
बड़े-बड़े मॉलो में कुछ खरीदते
पीछे की जेब से पैसा निकलते
अपनी अकड़ का झंडा
स्वतंत्रता के जश्न सा फहराते हो ,
यह विमर्श किस लिए
जहाँ जबर्दस्ती द्रौपदी की तरह
राजभवन के अंदर नहीं उतारी जाती साड़ी 
एक षड्यंत्र के तहत
उन्हें मुक्त कर दिया गया है
लोकतंत्र की सड़को पर
फुटपाथ पर डाले नयी टाईल्स की
चमकती खूबसूरती की तरह ,
वहीँ तुमने वहीँ
उतार दिया स्वेच्छा से
परम्पराओं से जकड़े
दम घोटते अपने कपड़े ,
यह सब किस लिए !
अनायास
किसी बूढ़े की लाठी सा
कोने में खड़ियाये प्रश्न सा जो लगता है
अचानक दिख जाने पर
चाबुक की तरह
हमारी पीठ पर
सटाक से पड़ता है
तो हम दौड़ पड़ते हैं
अपने रथ में प्रश्नों को लादे
किसी दलदल की तरफ।

(अप्रमेय )