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Saturday, February 1, 2014

यह सब किसलिए

यह सब किसलिए
जहाँ देखते हो तुम
इतनी बेपरवाह दुनिया में
आदमी का बच्चा
दम तोड़ देता है रोटी के लिए
और तुम कि
रोटी के जुगाड़ के पीछे
अपनी तिजोरी भरे जा रहे हो ,
जहाँ सूखता ही है पसीना
समय के झुर्रियों के बीच
जहाँ पसीजती ही है जवानी
खटिया पर दम तोड़ते हुए
वहाँ अपनी कमीज की खिड़की से
एक बटन खोले
किसके लिये अपनी जवानी को
कुदा देना चाहते हो ,
यह सब किसके लिए !
जहाँ बदल दी जाती है बैल की तरह तुम्हारी मर्दानगी
जो जुतती नहीं हलों में
न ही देखी जाती है खींचती बैलगाड़ियों को ,
तुम मर्द के कौन सा बाय प्रोडक्ट हो
जो अपने बीवी बच्चो के साथ
बड़े-बड़े मॉलो में कुछ खरीदते
पीछे की जेब से पैसा निकलते
अपनी अकड़ का झंडा
स्वतंत्रता के जश्न सा फहराते हो ,
यह विमर्श किस लिए
जहाँ जबर्दस्ती द्रौपदी की तरह
राजभवन के अंदर नहीं उतारी जाती साड़ी 
एक षड्यंत्र के तहत
उन्हें मुक्त कर दिया गया है
लोकतंत्र की सड़को पर
फुटपाथ पर डाले नयी टाईल्स की
चमकती खूबसूरती की तरह ,
वहीँ तुमने वहीँ
उतार दिया स्वेच्छा से
परम्पराओं से जकड़े
दम घोटते अपने कपड़े ,
यह सब किस लिए !
अनायास
किसी बूढ़े की लाठी सा
कोने में खड़ियाये प्रश्न सा जो लगता है
अचानक दिख जाने पर
चाबुक की तरह
हमारी पीठ पर
सटाक से पड़ता है
तो हम दौड़ पड़ते हैं
अपने रथ में प्रश्नों को लादे
किसी दलदल की तरफ।

(अप्रमेय )

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