मैंने पढ़ रखा है किताबों में
कि मुझे मुक्त होना है
दुनिया से दुनिया में रहते हुए,
मेरे जैसा आदमी इस पंचायत में
सिर्फ जज का
मेज पर पड़ा हथोड़ा है,
जो ठुकता है
अपने सत्य को खंडित करता हुआ
अपने ही विरुद्ध
मैं डर जाता हूँ
जी हाँ मैं निहायत
डरपोक इंसान हूँ
दुनिया में रहते हुए
मुझे दुनिया से मुक्त होने की इच्छा है
अपने शरीर को साबुन से रगड़ते
साफ़ करते, आत्मा को झाँकने की तमन्ना है
मकान के बेडरूम के साथ
घर के कोने में
मंदिर बनाने की मंशा है,
जी हाँ यह बातें निहायत असम्बद्ध लग सकती हैं
उन बड़ी-बड़ी प्रार्थनाओं में
या फिर दिख सकती हैं
मामूली सी जयकारा लगाते हुए
किसी बड़े धर्म रथ को खीचते हुए
पर मुझे बूढी माँ के चश्मे के साथ
पिता की लाठी के साथ
बहनों के बच्चों के साथ
और थोडा सा ज्यादे
अपने बच्चों के साथ
जलेबी खाते हुए
उन अनाथ भगवान् के
बच्चो की भी चिंता है।
( अप्रमेय )
No comments:
Post a Comment