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Sunday, March 24, 2019

मैंने तुमसे प्यार किया

सब कुछ तय था
सिवाय इसके 
कि
मैं तुम्हें प्यार करूँ.
पर मैंने
दुनियावी शास्त्र के विरुद्ध 
तुमसे प्यार किया और
जीते हुए
अपने अस्तित्व को
खत्म कर डाला |
(अप्रमेय)

Saturday, March 23, 2019

जीना चाहता हूं

मैं जी भर जीना चाहता हूं
मरने से पहले और मरने के बाद
कोई बुलावा इधर से आए
तो पुनः आना चाहूंगा
मर जाने के लिए,

वैसे सौ बार जीते जी मैं
मर चुका हूं और ग़ालिब को
याद करते हुए उनके शेर का
पहला पद मन्त्र सा दोहराया हूँ
कि क्या बुरा था मरना जो एक बार होता,

लेकिन फिर भी एक बात
सबके लिए कहना चाहूंगा
जिंदगी पछाड़ती ही रहेगी हमेशा मृत्यु को
प्यार जीतता ही रहेगा हमेशा घृणा को
वसन्त पतझड़ के रूखेपन को
ढंकता ही रहेगा तबतक
जबतक एक एक आदमी
जिंदगी से प्यार न करने लगे।
(अप्रमेय)

हमेशा कुछ कहना भी जरूरी नहीं

जिंदगी इतनी भी गई गुजरी नहीं
कि रात सोने के पहले
सुबह उठने का मन न हो,

तुम इतने भी भूले बिसरे नहीं
कि मरने से पहले मैं तुम्हें न बताने जाऊं
कि लो अब चलने की बारी आई,

इस बीच सब कुछ इतना अच्छा भी न रहा
कि पन्नों पर उन्हें उतार भर दूँ
और वह कविता हो जाए,

पर फिर भी सांझ-सुबह
वह जो चुप्पी बैठी रही
हर वक्त पास खाली कुर्सी सी
उसने मुझसे कहा
हमेशा कुछ कहना भी जरूरी नहीं।
(अप्रमेय)

Saturday, March 16, 2019

एक उम्र के बाद

एक उम्र के बाद
घर की दीवारें
बहुत पास दुबक आती हैं
और नीचे झुक आती है
घर की छत
कोने-कोने में रखे सामान
अपने शरीर से प्याज के छिलके के माफिक
अपना रहस्य नुचवाते हैं,

देह घबराती है और
कहीं इधर-उधर सांस ले रहे
दरारों के बीच कुछ सपने
कुल्हाड़ी लिए जो दौड़ते हैं मेरी तरफ
उनसे जान छुड़ा के भागने के अतिरिक्त
कोई चारा शेष नहीं दिखता,

पहले लौट के घर को आना होता था
अब बार-बार लौटता है मन
बाहर दरवाजे के पास पड़े जूतों के पास,

भागवत की एक कथा याद आती है
जिसमें राजा के अंतिम समय
के वक्त हिरण चिंता से
उसे भी अगले जन्म में
हिरण होना पड़ा था,

मैं सोचता हूँ
मुझे अगले जन्म में
क्या-क्या होना पड़ेगा
इसका लेखा-जोखा
मेरी कविताओं में क्या
स्पष्ट हो पाया है।
(अप्रमेय)

इस बार

ये कहना मुझे अच्छा नहीं लगा कि
झर जाएंगे पत्ते इसलिए
कह रहा हूँ 
झर रहें हैं पत्ते
इस बार भी वसंत के,

इस बार, इस बार ऐसा कहना
हमेशा से कितना
आशान्वित करता रहा है मुझे
ये आज पलाश के पेड़ के नीचे
धूप में खड़े हो कर उसके फूल को
देखते हुए अनुभव हुआ,

इस बार ऐसा कहना
इस जीवन का महा मंत्र लगा
जो सुबह से शाम तक
आदि से अनंत तक
बराबर बज रहा है
दिन में रौशनी सा
रात में अँधेरा सा
बादलों में चाँद सा
या फिर तारों सा
घटाओं सा
झरनों सा
आदमी में आदमी सा
(अप्रमेय)