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Saturday, March 16, 2019

एक उम्र के बाद

एक उम्र के बाद
घर की दीवारें
बहुत पास दुबक आती हैं
और नीचे झुक आती है
घर की छत
कोने-कोने में रखे सामान
अपने शरीर से प्याज के छिलके के माफिक
अपना रहस्य नुचवाते हैं,

देह घबराती है और
कहीं इधर-उधर सांस ले रहे
दरारों के बीच कुछ सपने
कुल्हाड़ी लिए जो दौड़ते हैं मेरी तरफ
उनसे जान छुड़ा के भागने के अतिरिक्त
कोई चारा शेष नहीं दिखता,

पहले लौट के घर को आना होता था
अब बार-बार लौटता है मन
बाहर दरवाजे के पास पड़े जूतों के पास,

भागवत की एक कथा याद आती है
जिसमें राजा के अंतिम समय
के वक्त हिरण चिंता से
उसे भी अगले जन्म में
हिरण होना पड़ा था,

मैं सोचता हूँ
मुझे अगले जन्म में
क्या-क्या होना पड़ेगा
इसका लेखा-जोखा
मेरी कविताओं में क्या
स्पष्ट हो पाया है।
(अप्रमेय)

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