जिंदगी इतनी भी गई गुजरी नहीं
कि रात सोने के पहले
सुबह उठने का मन न हो,
तुम इतने भी भूले बिसरे नहीं
कि मरने से पहले मैं तुम्हें न बताने जाऊं
कि लो अब चलने की बारी आई,
इस बीच सब कुछ इतना अच्छा भी न रहा
कि पन्नों पर उन्हें उतार भर दूँ
और वह कविता हो जाए,
पर फिर भी सांझ-सुबह
वह जो चुप्पी बैठी रही
हर वक्त पास खाली कुर्सी सी
उसने मुझसे कहा
हमेशा कुछ कहना भी जरूरी नहीं।
(अप्रमेय)
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