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Thursday, February 6, 2014

गाँव और माँ :

गाँव शहर से दूर
माँ सी एक
इंतज़ार करती गोद है
जहाँ आप की तरक्की नही
आप का होना सिर्फ महत्वपूर्ण है।
गाँव शहर की सड़को से दूर
माँ सी एक
खलिहान है
जहाँ जिंदगी भागती नही
सुनती भी है और सुना भी जाती है
वह गीत जो मन के खेत में फैला है 
जिसे प्रेम से वह किनारे कहीं सरिया जाती है।
गाँव निश्चित ही शहर नहीं
माँ की तरह
तुम्हारी समझ से थोड़ी देहाती औरत है
जिसे जीने का सौर नहीं
बेटों को जिला पाने में ही
पूरी जिंदगी खपा जाती है।
गाँव शहर नही गाँव है
पूरी तरह माँ के गंध सी
कहीं बगीचे में पत्तो के बीच
छुप कर पक रहे आम सी
कुछ पकाती हुई
तुम्हारे लिए कुछ छुपा कर बनाती हुई,
मैं देख पाता हूँ माँ
गाँव और तुमको
पर हिम्मत नही जुटा पाता
तुम्हे शहर में बुला कर
शहराती बनाने की। 

(अप्रमेय )

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