सफर में जिंदगी
------------------------
सफर में जिंदगी और मैं
अलग-अलग हिसाब से
मिलते रहे
कभी पेड़ों के नीचे चुप-चाप
दाना चुगती चिड़ियों के पास
तो कभी सुबह की तैयारी में
लटकते हैंगरों में आधे गीले आधे
सूखते कपड़ों के पास,
जिंदगी की तमाम शक्ल
आती रहीं और जाती रहीं
पर उनसे मन भर कभी
मिलना नहीं हो पाया
सफर में हो जिंदगी
तो अनायायास ही
सफर में ही हो जाती है कविता
मैं शीशे के सामने कभी- कभी
छूता हूँ अपने हाथ-पाँव
और धीरे से बरौनियों के नीचे
आँखों के अंदर उतर कर ढूँढ़ता हूँ
मंजिल का पता पर
वहां कोई टिकट नहीं मिलता
जिस पर लिखा हो
शहर का नाम और वहां पहुँचने का समय
सफर में जिंदगी और कविता
कितनी दूरी और कितना भाव
इकठ्ठा कर सकेंगे
ये कौन जानता है !!!
(अप्रमेय )
No comments:
Post a Comment