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Thursday, January 16, 2014

उसे पता नहीं

उसे पता नहीं
शहर से दूर
अपने ह्रदय के अंदर
मैंने बसा ली है बस्ती
और जोड़ दिया  
हवाओं से उसकी स्वांस ,
मैंने खंडहरों में
जला दिया है दीप
और अपनी परछाई में
ढूँढ लिया है उसका साथ ,
उसे पता नहीं
सन्नाटों से
आती है उसकी आवाज
जिसमे मिला दिया है
मैंने अपने मन का राग ,
उजाले हर तरफ से
देखतें हैं मुझको
उसे पता नहीं
मैंने देख ली है उसकी आँख ,
उसे पता नहीं
धीरे-धीरे ठण्ड सी
आती उसकी लज्जा को
चिपका लिया है मैंने
स्वैटर के साथ
गर्मी में मुझे मालूम है
तुम झरोगी
मेरे माथे से
प्यास के साथ।
( अप्रमेय )

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