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Thursday, June 1, 2017

राम-राम

पेड़ खड़े हैं लहलहाते 
विश्व के आँगन में
देखो उनका नृत्य 
और आँख मिचोली करता हुआ 
खेल हवाओं के संग,
मैं देखता हूँ और
याद करता हूँ तुम्हे
जब बेफिक्री से मेरे ह्रदय के पास
जेब में हाथ डालते हुए
निकाल लेते हो निर्द्वन्द्व सब-कुछ
मैं कुछ कह पाऊं उससे पहले
तुम्हारा यह सवाल
घेर लेता है पूरा अस्तित्व
आकाश इतने दूर और ऊँचा क्यों है ?
कितने दिलचस्प होते हैं कुछ सवाल
जो उत्तर देने से नहीं
देखने के लिए मजबूर करते हों...
अखंड धरती पर फैले दूब-झाड़,
पेड़ों के बीचो-बीच कोई बुलबुल
 जब अपनी बोली में शहद का व्याकरण
समझा रही होती है...
कोई कुत्ता शहर की तरफ से
हांफता-भागता
जिंदगी से प्यार और मोह की
अज्ञात कविता लिख रहा होता है,
इससे ज्यादे और अर्थ की सार्थकता
आज के लिए अतिरेक की तरफ बढ़
जाना होगा
तो भैया आज के लिए बस
राम-राम
(अप्रमेय)

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