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Thursday, June 1, 2017

बात हुई

मैंने कल उससे बात की 
एक बच्चे की तरह 
और समझा 
एक-एक चीज झरती हैं कैसे 
उसकी आँखों से, 
वह रो नहीं रहा होता
पुकार रहा होता है
अस्तित्व की सबसे प्रबल भाषा में
पर तुम्हारे लिए यह अवसर नहीं
 कि तुम समझ सको उसकी भाषा,
मैंने कल उसके पास बैठ कर
धरती की गर्माहट को महसूस किया
और एक सत्य को स्वीकार किया
कि हम कुछ नहीं कर सकते अब
सिवाय इसके
कि धीरे-धीरे सभ्यता के नाम पर
हम उसे खोते जाएँ
और वह हमारी ही तरह बन कर
अपनी पुकार को दफ्न करता जाए धीरे-धीरे|
(अप्रमेय)

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