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Friday, February 7, 2020

वसन्त आ चुका है

बाहर बे मौसम बारिश हो रही है
सुना है इस साल भी
कई लोग ठंड से मर गए,
एक बुजुर्ग ने कभी मेरे इस वक्तव्य पर
मुझे ठीक करते हुए कहा था
ठंड से कभी किसी अमीर को
मरते हुए सुना है ?
यही सोचते हुए हर साल की तरह इस साल भी
वसंत आ चुका है
कभी मैंने एक कविता लिखी ही नहीं
गाई भी थी कि
तुम मनाओ वसन्त हम मनाएंगे फिर कभी
का स्वर अब भूलता जा रहा हूँ
एक गूंज कानों के अंदर बराबर बजती है
डॉक्टर कहता है यह एक रोग है
मनोवैज्ञानिक इसे मनोरोग की श्रेणी में डालता है
एक बाबा-फकीर सा इसे
अनहद नाद कह कर मुस्कुरा देता है
मेरी बूढ़ी माँ कुछ नहीं कहती
मुझे देखती है और अपने आँचल से
मेरे कानों को ढक देती है।
(अप्रमेय)

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