स्मृतियां तारों सी चमकती हैं
अंतरतम आकाश में
एक चेहरा बीचों-बीच
चांद सा निहारता है मुझको
मैं प्रतीक्षा में हूँ कि
पूर्णिमा के दिन
मंत्रों के बंदनवार से
मुदित पुष्प सा रंग खिलाऊँ
महक उठूं खुद अपने तन में
सब मे एक सुवास जगाऊँ
बहुत हुआ अमावस अब
मुक्ति का एक द्वीप जलाऊं !!!
(अप्रमेय)
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