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Friday, June 20, 2014

वह



वह मुझे
कहीं भी मिल जाता है
अक्सर तिराहों पर
किसी वीरान घर के बरामदे में
खड़ा-झाँकता,
घूमते साइकल के पहियों
में बिना घिसे चमचमाता
या
फड़फड़ाता सिनेमा हॉल के उकचे
किसी बैनर के ऊपर-किनारे
वह मुझे
कही भी मिल जाता है
पसरा---शब्दों की नज़र में
अटका---गीत की लय में
या फिर सिकुड़ता...
जिंदगी के सत्य में
हैंडपंप के पास चबूतरे पर
पड़ा हुआ
संडास के छिद्र की ढलान से  
बच-कर दृष्य बनाते
जिंदगी से दो-चार करते हुए |
( अप्रमेय )
     

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