आंख ही नहीं भरती
गला भी भर आता है
जहाँ अटा पड़ा हुआ है
शब्दों का पहाड़,
वहीं अपनी जगह से
गीली होकर खिसकती है
थोड़ी जमीं,
पहाड़ भी खिसक जाता है,
एक रास्ता खुल आता है छिद्र सा
जिसके बीच सीढ़ी बनाते
चढ़ता है कोई
गरुड़ सा पंख लिए,
हे प्राण! हे प्राण !
कोई पुकारता है उसे,
ऊपर से देखने पर
दिख पड़ता है खेतों सा
जीवन
जिसने अपने हृदय में
संजोए रखा है
संयोगों के पेड़-पौधे,
थोड़ा गहरे और गहरे
देखने पर
तितलयों सा उड़ते
दिख पड़ते हैं कुछ लोग
औषधि का रस चूसते
और कुछ अपनी चिता की
अग्नि के लिए
उन्हीं पेड़ों से लकड़ियां
काट रहे होते हैं।
(अप्रमेय)
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