उसके कंधों का सहारा लेते
एक गूंज की शक्ल सा
मैंने अपने आप को
उसके साथ जाते देखा,
पर स्मृति में वहीं अब भी
अटका हुआ हूँ जहां
चुप्पी ने एक घोंसला बुन दिया था,
इच्छा थी एक गीत गाने की
गा न सका पर
उसकी धुन आकुंठ पंख फैलाए
शब्दों की तलाश करते
आकाश में सूर्य की परिक्रमा कर रही है,
मैं नितांत परेशान सा ढूंढ रहा हूँ सहारा
न मंदिर, न बाबा, न चेला , कोई भी नहीं
जो सुने मेरी बात,
बाहर से घर आते हुए
घर के चबूतरे के पास अचानक
मिल गया गिरा पड़ा एक
गदराया आम का पत्ता
पता नहीं उसने सुनी या नहीं
पर मैंने कही अपनी बात
उसके बाद मैं शांत हूँ
और अब जब मैं उसे अपनी किताब
के पन्नों के बीच रख रहा हूँ
तो सोच रहा हूँ कि
बिना फल के मौसम में
ये पत्ते क्या करते हैं
अपनी हरियाली को इतनी यातनाओं के बाद भी
ये कैसे बचाए रखते हैं।
(अप्रमेय)
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