चार साल की छोटी बच्ची दुःखी होकर
अपनी माँ से सुन कर निश्चिन्त
हो लेना चाहती है कि
गर्मी आएगी और
कोरोना वायरस चला जाएगा,
मां कुछ भी कह देना नहीं चाहती
क्योंकि वह जानती है
अनादि दुःख और महामारी के दुख का अंतर
वह चुप है क्योंकि
सत्य कहा नहीं जा सकता
ये अलग बात है कि हमने
सुन रखा है कि शब्द साक्षी हैं
'अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी'
पर साक्षी होना देह के
दुख का निवारण नहीं
कुछ भीतर के
दुख से छुटकारा हो सकता है,
बच्ची कितने दुख में है
यह माँ को तभी पता चला
जब शब्द अपनी अक्षमता के आवेग में
बह निकले उसकी आंखों से,
मैं सोचता हूँ कि क्या भाषा भी
इसी अक्षमता की पुत्री है और
वृक्ष और फिर जंगल
नदियां सब कुछ जो काल के प्रवाह में
बह रहे हैं वह किस अक्षमता
के भाई -बन्धु हैं!
मेरा समय आज अपनी अक्षमता पर
मुझसे सवाल कर रहा है कि कहो
हम ईश्वर के अक्षम पुत्र हैं या
वह हमारी अक्षम पिता ?
(अप्रमेय)
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