Powered By Blogger

Sunday, August 18, 2013

स्मृति


                                                               
मैं वही हो गया था
जो मैंने देखा था
मैं उस वक्त तुम्हें
खड़ा केवल निहार रहा था
ऊपर से नीचे तक
मेरे और तुम्हारे बीच
कुछ बन पड़ा था
पर वह जाता रहा धीरे-धीरे
जैसे चली जाती है जिंदगी ,
तुम और गहरे होते गए
जैसे गहरी होती जाती है मृत्यु ,
तुम ही विजयी हुए
तुमनें बना लिया था मुझे अपने जैसा
शांत पहाड़
शान्ति से तब ही
मैं निहार पाया था आकाश
मैं हवा था
हाँ मैं था तुम्हारे पास
पेड़ की फुनगी पर
और वहां से उतर कर
जड़ो की अन्धकार में
देख रहा था पाताल ,
फिर जाने कहाँ से
मुझे लिखनी पड़ी
वह स्मृति
(अप्रमेय)

No comments:

Post a Comment