परमात्मा अनंत है | उसका विचार ,व्याख्या उससे सम्बंधित उसका कुछ भी सब अनंत है |हम भी उसी के विस्तार हैं | वस्तु को देखना सिर्फ देखने की तरह यह परम योग है.... यह घटता है किन्तु धीरे-धीरे| हम निरपेक्षता की गहराई में उतरते हैं किन्तु धीरे-धीरे | उतरना एक गति है- जिसे हम "विस्तार की गति " या फिर 'प्रवाह की गति' कह सकते हैं |
अगर इस योग में हम कहीं रुके या फिर किसी विचार ,आभास अथवा प्रवाह की व्याख्या करने बठे, तो वह व्याख्या तो होगी पर उस अनंत की व्याख्या न हो सकेगी, हम विस्तार को रोक नहीं सकते भाव के दर्पण में उसकी तस्वीर को लाना कहाँ हो पाता है | किन्तु छोटे-छोटे ऐसे भाव- प्रभाव भी हमे जीवन जीने के उस धारा में उत्प्रेरित सदा से करते चले आ रहे हैं | अनंत का आभास छडिक हो तो भी क्या. है तो उसी का अंश- यही विस्मय द्वार है उस पूर्ण में चले जाने का |
(अप्रमेय)
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