तुम्हारी गोंजी हुई लकीर
मेरी डायरी में
अचानक दीख पड़ती है
रात मे अचानक जग जाने जैसे,
रात कभी
दिन कभी
तुम जब भी दिख पड़ते हो
मेरे पन्नो में
छेड़ जाते को कोई प्यारी धुन
सन्नाटे में अचानक कभी-कभी
कौधती है चमक
तुम्हारी गोंजी हुई लकीर सी।
तुमने गोंजा नहीं था
मेरी डायरी में
गुंज गए थे
अपनी पूरी मस्ती लिए
पूरी कहानी लिए
आओ मै तुम्हारे लिए
कोई शब्द तराशूँ
अप्रमेय
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