शाम की कोई तस्वीर नहीं होती
वह बस होती है
कभी-कभी
बाहर बरामदे के नीचे
इक्कठे हुए ढेरों पत्तों और
शहर से उड़ कर आये
ढेरों कागजो और मिट्टी के साथ ।
वह होती है पेड़ के नीचे
ताला लगे खड़ी साइकल के साथ
स्वांस लेती किनारे दरवाजे के बहार
पड़े चप्पलो के पास ।
शाम होती है
बच्चो की गेंदों के साथ
दौड़ती इधर-उधर गलियों में
गूंज के साथ ।
कभी-कभी शाम
किन्ही-किन्ही की आँखों में होती है
इंतज़ार के साथ ....
आज सिर्फ केवल शाम है
मुझसे अलग- थलग पड़ी
केवल अपने साथ ।
(अप्रमेय )