इधर उधर
पलकों पर
मुदती-खुलती हुई
झर-झर बहती हुई
मसलन कहीं भी
नसों में दौड़ती हुई।
मरघट को जाती हुई
राग-विराग का दीपक
ह्रदय में धड़काते
तुम पड़ी दिख ही जाती हो
ओस सी पत्तों पर चिपकी हुई
पेड़ के नीचे छाह सी फैली हुई
छत्तों सी कहीं किनारे
छत के नीचे मधुरस बटोरते
या घर में बचे कहीं किनारे
पड़े आलू में अंकुरित होती हुई।
तुम सुनाई पड़ ही जाती हो
कोयल के कूक के पीछे
नक़ल करते किसी बच्चे की पुकार में
पाठशाला में ककहरो की गूँज में
तुम महक ही जाती हो
घंटियों की आवाज के बीच
गुथी हुई प्रार्थनाओं में धूप-बाती सी
महकती- उड़ती हुई।
डगमगाती हुई धीरे-धीरे
बाबा की लाठी में उपर पंजो के बीच
फ़सी हुई।
(अप्रमेय )
No comments:
Post a Comment