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Tuesday, March 11, 2014

माँ

माँ 
यह कैसा है तंत्र तुम्हारा 
जो हमें सीखने नहीं देता 
जीवन की भाषा ,
जहाँ व्याख्याएं ही केवल 
लपेटती हैं पतंग के चरखे की तरह 
सभ्यता को 
और उड़ा देती हैं उन्हें 
संसद के छत के ऊपर 
लोकतंत्र के बादल में,
जाने किस हाथ के 
अँगुलियों के इशारे पर 
बह रहा है यह
उन्हें क्या याद नहीं आती 
तुम्हारे रीढ़ की हड्डियां 
जो चटक चुकी थी कई बार 
तुम्हे पकड़े रहने के साथ,
आँख की पुतलियां 
जो अटक गयी थी 
कई रात तुम्हे सुलाते हुए 
जगने के साथ
हम कौन से हैं तुम्हारे बच्चे ?
जो देखते हैं 
तुम्हारे दूध को 
पसीने में घुलते हुए 
सड़क पर बिकते-नुचते हुए 
माँ तुम माँ हो 
कोई ऐसा लोरी सुनाओ 
जिससे सब-कुछ याद आ जाय 
जो हम भूल चुके हैं।  
(अप्रमेय )

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