तुम इसे समझते रहे कविता
और मैं खोजता रहा भाषा
कभी दो दिन
कभी चार
और कभी महीनों बाद
लिखता रहा चूकते-चुकते
कलम से निकलती स्याही की तरह
धीरे-धीरे भाषा ,
हमनें तो खोजी है
सिर्फ ध्वनि में भाषा
या कभी-कभी
आँखों में
पर
जिंदगी की भाषा
खेतों में पकते बालियों के लिए
चूल्हा हो जाती है
पकते आम के लिए चीनी
शरीर के लिए गर्मी
और सड़ते उच्छिष्ट के लिए
अदृश्य टेक्नोलॉजी,
तुम पढ़ो इसकी भाषा
इसका बजता छंद
मात्राओं में दिन-रात की तरह
पूरी आवृत्ति में
ऋतु-मास की तरह
जीते, दौड़ते, सुस्ताते,
उड़ते, बतियाते
पशु-पक्षियों मनुष्यों में
राग की तरह,
और मृत्यु से गूँजते
स्वयंभू
तानपुरे से निकलते
गांधार की तरह ।
(अप्रमेय)
और मैं खोजता रहा भाषा
कभी दो दिन
कभी चार
और कभी महीनों बाद
लिखता रहा चूकते-चुकते
कलम से निकलती स्याही की तरह
धीरे-धीरे भाषा ,
हमनें तो खोजी है
सिर्फ ध्वनि में भाषा
या कभी-कभी
आँखों में
पर
जिंदगी की भाषा
खेतों में पकते बालियों के लिए
चूल्हा हो जाती है
पकते आम के लिए चीनी
शरीर के लिए गर्मी
और सड़ते उच्छिष्ट के लिए
अदृश्य टेक्नोलॉजी,
तुम पढ़ो इसकी भाषा
इसका बजता छंद
मात्राओं में दिन-रात की तरह
पूरी आवृत्ति में
ऋतु-मास की तरह
जीते, दौड़ते, सुस्ताते,
उड़ते, बतियाते
पशु-पक्षियों मनुष्यों में
राग की तरह,
और मृत्यु से गूँजते
स्वयंभू
तानपुरे से निकलते
गांधार की तरह ।
(अप्रमेय)
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