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Sunday, May 31, 2015

अतिथि

अतिथि तुम कब आए
ध्वनि में शब्द का रूप भरते
ताप से आग होते 
धीरे-धीरे वैश्वानर फिर दावाग्नि 
बड़वाग्नि होते 
सिगड़ी-चूल्हे में गुनगुनाए
अतिथि तुम कब आए
सर सर सर पत्तों को नचाए
पंछी के पंख को भर-भर लुटाए
गगन चुम्बन का पाठ सुनाए
अतिथि तुम कब आए
माटी की किताब पर
फूल घाँस और जाने क्या-क्या
कविता लिख लाए...
अतिथि
तुम्हारे आँख फिर
क्यों भर आए
बताओ
कहाँ-कहाँ मंडराए
घुमड़ाए
झर झर झर
झर आए
बताओ अतिथि
तुम क्यों नहीं फिर आए

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