Powered By Blogger

Sunday, May 31, 2015

भीतर

भीतर अर्थ नहीं
शब्द नहीं 
ऐसा कुछ नहीं
जो तुम्हारे लिए सार्थक हो,
तुमने जब-जब
जानना चाहा उसे आदतन
आँखों के प्रकाश की लाठी लिए
सिर्फ पगडंडी तलाशने का काम किया,
भीतर घर नहीं
चूल्हा नहीं
कोई ऐसा कमरा भी नहीं
जहां बिस्तर के सिरहाने
तुम दबा सको अपनी उदासी,
मैंने भीतर को सुना है
कभी-कभी
स्मृतयों के सहारे
उसके रूप को ध्वनित होते हुए
किसी को पुकारने के बाद
कमरे में कुर्सी पर बैठे
उधर बाहर मैदानों में
खेलते बच्चों की गूँज के पास ,
शताब्दियों की दौड़ में
किसी बूढ़े को अपनी चारपाई पर
बस एक फर्लांग की दुरी पर पहुँचने के पास
लगातार चल रही किन्ही सिसकियों को
धीरे-धीरे हवा की नमी में
घुलते रहने के साथ,
भीतर कुछ होता नहीं
यह सिर्फ कवियों, मनीषियों को
बहलाने जैसा अल्लाद्दीन का चिराग है
जिसकी बाती
जिसका तेल
और उसको दहकाने वाली चिंगारी
बाहर हाँ बाहर
तुम सब के पास है 

No comments:

Post a Comment