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Sunday, May 31, 2015

जो जान सका;

मैं जो जान सका
वह यही कि यहां
समय के पन्नों पर
कुछ-अकुछ के बीच
बीननी है अपने काव्य की कहानी,
बिना अभ्यास के
बीचो-बीच
किन्हीं अन्तरालों में
पूरे जोर से
निभाना है अपना किरदार,
अपने ही निर्देशन में
पूरे का पूरा चाक-चौबंद
यहीं इसी जगह
सुबह उठते हुए
सूरज की रोशनी में
चांद-तारों की झोली में
छुपा देने हैं अपने सवाल,
होगी, फिर वही होती हुई रात
शताब्दियों के साथ
जवाबों की घंटी लिए,
तुम्हें ढूंढना है अपना सवाल
जिसके गीत गाये जा सकें
गुनगुनाएं जा सकें 

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