वह ब्याहता
जो ला सकी
उसके बाप की कुल जमा-पूंजी थी
पैसे से ही नहीं
इज्जत की भी पगड़ी
जगह-जगह
सेठ,सुनार,मित्रों
और गुरुवों के चौखट पर
उसके बाप ने उतारी थी,
वह ब्याहता अपने होने का अर्थ
न ही माँ के आँचल में ढूंढ सकी
न ही बाप के कंधे पर,
धरती उसके विराम की नहीं
यात्रा की सड़क है
जिस पर ससुराल का रथ
दौड़ता है
कोई भी सवार हो सकता है
कोई सारथि भी
वह पहियों की कील की तरह धुरी बन
काल को निहारती रहती है,
ब्याहता का
ससुराल और मायका
गड़े बांस की तरह दो छोर हैं
जहाँ वह अपने होने को
अरगनी के मानिंद
बाँध देती है
दोनों मुहाने कोई कपड़ा
गीला हो गन्दा हो
उसे अपने आँखों के गड़ही में धोकर
टांगते हुए सुख देती है।
(अप्रमेय )
जो ला सकी
उसके बाप की कुल जमा-पूंजी थी
पैसे से ही नहीं
इज्जत की भी पगड़ी
जगह-जगह
सेठ,सुनार,मित्रों
और गुरुवों के चौखट पर
उसके बाप ने उतारी थी,
वह ब्याहता अपने होने का अर्थ
न ही माँ के आँचल में ढूंढ सकी
न ही बाप के कंधे पर,
धरती उसके विराम की नहीं
यात्रा की सड़क है
जिस पर ससुराल का रथ
दौड़ता है
कोई भी सवार हो सकता है
कोई सारथि भी
वह पहियों की कील की तरह धुरी बन
काल को निहारती रहती है,
ब्याहता का
ससुराल और मायका
गड़े बांस की तरह दो छोर हैं
जहाँ वह अपने होने को
अरगनी के मानिंद
बाँध देती है
दोनों मुहाने कोई कपड़ा
गीला हो गन्दा हो
उसे अपने आँखों के गड़ही में धोकर
टांगते हुए सुख देती है।
(अप्रमेय )