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Monday, October 26, 2015

कोई कैसे कहे

कोई कैसे कहे कि क्या कहूँ उनसे
न कहना ज्यादे सुकून दे जाता है !!
(अप्रमेय)

खुदा भी बन सकते हैं

हम कर सकते हैं
कुछ इन चींटियों के लिए
हम पत्तों को काँटों से
हवा में छितिग्रस्त होते बचा सकते हैं,
रुके संडास के जल को ईंट हटा कर 
बहाव दे सकते हैं ,
हम सूखती दूब को
पानी की कुछ बून्द डाल कर
हरा रख सकते है
अगले बसंत के लिए
हम जुगनुओं को इतिहास से
गोरैया को घर के आँगन से
बूढ़ों की बीतती जिंदगी में
जवानी का साथ दे कर
थोड़ी और गहरी सांस भर सकते हैं
हम खुदा को याद करते
किसी न किसी का खुदा भी बन सकते हैं ।।
(अप्रमेय )

इतिहास !

रात है या गुलदस्ता....
याद !
जिंदगी है या मंच....
नाटक !
आदमी है या हथियार...
क़त्ल !
ईश्वर है या समाचार..
स्वप्न !
सवाल है या जवाब...
इतिहास !
(अप्रमेय)
ज़िंदगी से कर ली आँखे दो चार
मौत से इश्क लड़ाना चाहता हूँ
(अप्रमेय)

उतर आओ

उतर आओ सांझ सी मेरी रूह में
कि मैं अब डूब जाना चाहता हूँ ।।
(अप्रमेय)

स्वर मंगल

मैं लिख सकूँ
कोई गीत
तुम्हारे लिए
जिसमे छंद क्या,पद क्या,
स्वर क्या !
किसी की प्रतिबद्धता न हो,
तुम गाओ उसे
बिना किसी संकोच के
कि सुन सके तुम्हारा हृदय
कि डोल सके तुम्हारे
अंतस का जंगल,
कोई चिड़िया
कोई जुगनू
कोई भी पतंगा
बिना आहट के
मिला सके तुम्हारे गीत में
सृष्टि का स्वर मंगल
(अप्रमेय)

मैं खोजता रहा

मैं खोजता रहा 
अपना सहचर
बाद बहुत बाद में
खुला अर्थ
बंद मुट्ठी के खुल जाने जैसा,
मैं समझता रहा
प्यास सूखे गले को नम करती है
उधर खुली मुट्ठी ने जब पकड़ा हाथ
जाने का समय नजदीक था
इच्छा के दानव ने
घोटी मेरी सांस
सहचर का पुनः
छूट गया साथ ।
(अप्रमेय)
ये कौन ठहरा सा दिख गया था कभी
उसके पाने की ख्वाइश ने ठहरने न दिया।।
अप्रमेय

कोई सुबह सा शाम हो जाता है

कोई सुबह सा शाम हो जाता है
कोई धुआँ सा आग हो जाता है।
अपनी हस्ती को भी बिखरता देख
है कोई जो बाग़-बाग़ हो जाता है।
ज़िंदगी मिली तो सभी को इक ही मगर
हिस्से-हिस्से में कोई ख़ाक हो जाता है।
कोई कहा किसी ने सुन लिया
कुछ अनकहा राज हो जाता है।।
(अप्रमेय)