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Tuesday, October 24, 2017

सफर में जिंदगी

सफर में जिंदगी और मैं 
अलग-अलग हिसाब से 
मिलते रहें 
कभी पेड़ो के नीचे चुप-चुप 
दाना चुगती चिड़ियों के पास
तो कभी सुबह की तैयारी में
लटकते हैंगरों पर आधे गीले आधे
सूखते कपड़ों के पास,
जिंदगी की तमाम शक्ल
आती हैं और जाती हैं
पर उनसे मन भर कभी
मिलना नहीं हो पाता,
सफर में हो जिंदगी
तो अनायास ही
सफ़र में ही हो जाती है कविता
मैं शीशे के सामने कभी- कभी
छूता हूँ अपने हाथ-पाँव
और धीरे से बरौनियों के नीचे
आँखों के अंदर उतर कर ढूँढ़ता हूँ
मंजिल का पता पर
वहां कोई टिकट नहीं मिलता
जिस पर लिखा हो
शहर का नाम और वहां पहुँचने का समय
सफर में जिंदगी और कविता
कितनी दूरी और कितना भाव
इकठ्ठा कर सकेंगे
ये कौन जानता है !!!
(अप्रमेय )

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