मैं इतना तो कह ही सकता हूँ
कि मैं जो चाहता हूं
वह करता नहीं और
जो मैं करता नहीं
उसे कहता नहीं,
वैसे न कहना न करने से
कितना अलग है!
ये कैसे समझाऊं या कहूँ
क्योंकि फूल और डाली
डाली और तना
तना और जड़
एक होते हुए भी
कितने अलग हैं ?
देखो न
धरती भी कितनी अलग है
कुछ न कहते हुए
कुछ न कहते हुए आकाश और
उसके पार जो कुछ भी है
वह भी तो कुछ नहीं कहता
अपनी तरफ से।
(अप्रमेय)
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