गली में कुत्तों का एक झुंड
साथ बैठा हुआ है
उनके बिखरे बाल और भूखे
थके चेहरों में मुझे
मजदूर की शक्ल दिखाई पड़ी,
सोचता हूँ मेरा ऐसा सोचना
बिम्ब के स्तर पर शोभनीय नहीं है
भाषा के स्तर पर तो कत्तई नहीं
पर दुनिया ने
कुत्तों और मजदूरों को
कैसे पालतू बनाया कि
एक मालिक को देख कर
पूंछ हिलाता है
और दूसरा अपनी
आत्मा को कंपाता है,
मुझे माफ करना शब्द कि
मैंने इस बात को
कविता सा नहीं
सपाट बयान सा
लिख दिया है।
(अप्रमेय)
No comments:
Post a Comment