कभी कभी
कोई कविता अंदर से
घुमड़ती हुई धीरे धीरे
अंगुलियों के पास आकर
बादल की तरह छा जाती है,
कागज का सा खेत
कुदाल की सी कलम
मेड़ पर प्रतीक्षा करता किसान
बादल के पार देख लेना चाहता है,
जोर जोर से चलती हैं हवाएं
हवा में पके आम की तरह
इधर-उधर लहराती है कविता
कब चू जाए
कुछ कहा नहीं जा सकता,
एक भिक्षु ने आज के
हजारो वर्ष पहले पूछा था
निर्वाण को कैसे समझे प्रभु
बुद्ध ने एक पके आम को
दिखलाते हुए कहा था
उसका पक कर अपने आप
गिर जाना ही....
कुछ उसे इस तरह समझो,
फिलहाल मेरा आम या मेरी कविता
उस पेड़ पर नहीं है
कोई शरारती बच्चा भी नहीं दिखता
की उससे तहकीकात करूँ
बचपन मे एक बार पका आम
एक झटहे से तोड़ते वक्त
अटक गया था
आज उसी तरह मेरी कविता
और मेरा निर्वाण दोनों ही
बिना पेड़ के ही कहीं
अटक गए हैं।
(अप्रमेय)
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